Environmental Sciences, asked by sonukushwha720, 9 months ago

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Answered by Anonymous
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Answer:

प्रदुषण’ का शाब्दिक अर्थ है मालिन्य या दूषित करना। प्रदूषण की सही मायने में परिभाषा उसके शाब्दिक अर्थ से अधिक गहरी तथा विचारणीय है। प्रदूषण एक मानव निर्मित कृत्य है, न केवल उसके परिवेश, बल्कि स्वयं उसकी अंतरात्मा को दूषित करता है। प्रदूषण इसलिए एक ऐसा अहम् मुद्दा है, जिस पर पर्याप्त अध्ययन एवं चिंतन की आवश्यकता है।

प्रतिदिन अखबारों में, किताबों में, पुस्तिकाओं में हम पर्यावरण संबंधी विशेष सामग्री तथा प्रदूषण से जुड़ा बेहद संगीन लेख पढ़ते रहते हैं, परंतु हर मनुष्य यह अवश्य जानता है कि वह जिन आंकड़ों तथा प्रभावों को पढ़ रहा है, वे सिर्फ असलियत का एक हिस्सा है। मनुष्य एक ऐसा जीव है, जिस पर उसके आस-पास हो रहे बदलाव से असर तो पड़ता है, परंतु वह अपने विचारों को संकुचित कर आगे बढ़ने में विश्वास रखता है। इसलिए कह सकते हैं कि प्रदूषण मानव के मस्तिष्क की उपज है, जिसकी रचना करके वह अपने जीवन के भविष्य की तरफ गतिमान हो चुका है। धरती स्वयं वर्तुलाकार है और सूर्य के चारों ओर एक चक्राकार पथ पर घूमती है, परंतु इस गति के साथ-साथ वह मानव-निर्मित चक्रव्यूह में फंसती चली जा रही है। इस चक्रव्यूह में धरती माता को न कवल शारीरिक किंतु आत्मिक विपदाओं से भी युद्ध करना पड़ रहा है, क्योंकि एक मां का स्वयं के पुत्रों को एक प्रतिद्वंदी के रूप में देखना आंतरिक आघात है।

इस लेख में भी आंकड़ों, विभिन्न क्षेत्रों में हो रहे विभिन्न प्रकार के प्रदूषण, प्रदूषण से उत्पन्न हो रही जटिल समस्याएं और व्यवधान, प्रदूषण से हो रही बीमारियों इत्यादि अनेक प्रकार की चीजों का व्याख्यान किया जा सकता है, परंतु अहम् विषय-वस्तु प्रदूषण है, जो केवल मनुष्य के आस-पास हो रहे प्रदूषण से ही नहीं, बल्कि हृदय से जुड़े तारों से भी संबंध रखती है। मनुष्य का जीवन तीन अहम् भूमिकाओं से बना है-आस्था, निष्ठा और प्रतिष्ठा, जिसके लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है।

‘आस्था’ इंसान के जीवन में लयबद्धता लाती है। उसे जिस कार्य पर पूर्णतः विश्वास रहता है, वह उस कार्य को पूरी जीवटता से करता है। आस्था मनुष्य के विश्वास को प्रतिबिंबित करता है, चाहे वह परमपिता पर ही क्यों न हो। आस्तिकता का प्रतीक हो या अन्य कोई और वस्तु हो, परंतु मनुष्य यह भूल जाता है कि क्या आस्था अंधी तो नहीं? वह उसे एक ऐसे अंधकार में तो नहीं डाल रही, जहां रोशनी की उम्मीद भी नहीं? यह एक राक्षसी हंसी तो नहीं, जो अधर्मी बोलों से उसे आकर्षित तो नहीं कर रही? क्या वह आस्था के नाम पर प्रदूषण के सागर में गोते तो नहीं लगा रहा? दैविक भक्ति मनुष्य जाति की एक तरह की आस्था है, परंतु इसी ईश्वरीय भक्ति से वह पर्यावरण को हानि पहुंचा रहा है। अखंड विश्व में भक्ति का आवरण है ही। वह जन्म से मृत्यु तक का सफर परमात्मा के समक्ष शीश झुकाकार प्रारंभ तथा अंत तक किया करता है। परंतु इस यात्रा में यात्रीगण अवश्य ही भूल जाते हैं कि वह प्राकृतिक संपदाओं को नष्ट कर रहे हैं, जैसे शिशु के इस धरती पर जन्म लेते ही माता-पिता की सारी आकांक्षाएं उससे जुड़ जाती हैं, वे दोनों उसकी हर इच्छा सम्मानीय रूप से पूरा करना चाहते हैं, जिसमें हर उम्र के अनुरूप उसे हर वह चीज का उपभोग कराया जाता है, जो उसके लिए आवश्यक भी नहीं है। जैसे खेल-कूद की उम्र में नन्हें हाथों में वीडियो गेम, इलेक्ट्रॉनिक साइकिल पकड़ा दी जाती है, जो ऊर्जा को नष्ट कर रही है। मनुष्य के मस्तिष्क में अनेक न्यूट्रान कोशिकाएं हैं, जिनका क्षय होता है। इसके कारण दादी की कहानी से जो ऊर्जा प्राप्त होती है, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के कारण न्यूट्रॉन बढ़ने की बजाए घटते जाते हैं, जिससे याददाश्त कम होती जाती है। बारह-तेरह वर्ष की उम्र में बच्चों को मोटर साइकिल दे दी जाती है, जो न केवल दूषित धुएं का स्रोत है तथा हादसों का एक कारण भी है। खैर, यह सब माता-पिता की इच्छाएं एवं आस्था को तो नहीं दर्शाती, परंतु अवश्य ही प्रदूषण के विभिन्न कारणों में से एक हैं। आस्था को ईश्वरीय भक्ति का नाम देकर ऐसे उपभोग किया जाता है, जैसे, शिशु के जन्म के उपरांत माता-पिता यज्ञ तथा हवन करने में विश्वास रखते, दिखावे के स्वरूप वृहद मात्रा में भोजन कराने हेतु सैकड़ों लोगों को आमंत्रित करते हैं। हवन में पेड़ों की काटी हुई लकड़ियों तथा भोजन में व्यर्थ का अनाज नष्ट होता है। क्या यह एक तरह का प्रदूषण नहीं, जो आस्था के नाम पर शिशु के कोमल भावों से नाता बताकर धरती को दूषित कर रहा है? क्या यह अंतरात्मा का प्रदूषण नहीं, जो यह चीख-चीखकर कह रहा है कि इस दिखावे के आडंबर को रोको।

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