History, asked by arbudhrain13, 6 months ago

1. 8-13 शताब्दियों में नवीन सामाजिक मूल्यों तथा वातावरण के विकास का आलोचनात्मक परीक्षण
कीजिए।

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Answered by simranparmar087
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Answer:

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Answered by Anonymous
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Answer:

भारतीय इतिहास में 8-13 वी शताब्दियों में समाज में नवीन सामाजिक मूल्यों तथा वातावरण का विकास हुआ।

Explanation:

नया सामाजिक वातावरण : -

आठवीं सदी ई० के बाद और तेरहवीं सदी ई० में तुर्की राज सत्ता के स्थापित होने तक जो सामाजिक संगठन विद्यमान थे, उनकी निम्नलिखित विशेषताएँ थी:

• वर्ण-व्यवस्था में कुछ संशोधन हो जाने से शूद्रों का रूपांतरण खेती करने वाली जातियों में हुआ, जिससे कि वे वैश्यों के समीप आ गए।

• बंगाल एवं दक्षिण भारत में नई ब्राह्मण व्यवस्था की स्थापना हुई। इन क्षेत्रों में बीच के वर्ण विद्यमान नहीं थे और अंततः उस शिक्षित वर्ग का उदय हुआ, जो वर्ण-व्यवस्था में उचित स्थान प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रहा था।

• नई वर्ण-संकर जातियों में विलक्षण वृद्धि हुई।

• असमान भूमि तथा सैनिक शक्ति के वितरण के कारण ऐसी सामंतीय व्यवस्था का उद्भव हुआ जिसने वर्ण-व्यवस्था की सभी सीमाओं को लांघ दिया

• ऐसे प्रमाण भी उपलब्ध है, जिनसे सामाजिक तनावों की वृद्धि का पता चलता है।

शूद्रों के स्थिति में बदलाव।: -

ग्रामीण क्षेत्र तथा कृषि गतिविधियों के फैलाव के कारण शूद्रों के विषय में जो अवधारणाएं थीं, उनमें परिवर्तन हुआ । उत्तर-गुप्त काल की विधि-पुस्तकों ने कृषि को सभी वर्गों के लिए सामान्य-धर्म (सामान्य व्यवसाय) के रूप में शामिल कर दिया।अब वर्ण संबंधी मानकों को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता थी। इस दिशा में किए जाने वाले प्रयास का सबसे बड़ा संकेत यह था कि वैश्य एवं शूद्रों के बीच की दूरी कम हो रही थी।

सातवीं सदी

ई० के प्रारंभ में भारत आने वाले प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन-सांग ने शूद्रों को कृषकों के रूप में उद्धत किया है।

ग्यारहवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में अलबरूनी महमद गजनवी के साथ भारत आया तो उसने शूद्रों तथा वैश्यों के मध्य कोई अंतर न पाया। स्कन्द पुराण भी वैश्यों की खराब हालत का उल्लेख करता है । ग्यारहवीं सदी ई० के आते-आते उनको अनुष्ठानिक एवं वैधानिक दोनों तरह से शूद्रों के समक्ष माना जाने लगा। उदाहरणार्थ, अलबरूनी का कथन है कि यदि शूद्र एवं वैश्य श्लोकों का उच्चारण करते तो उनकी जीभ काट दी जाती थी। कुछ ऐसे शूद्र भी थे जिनको भोजयन्ना कहा जाता था। इन शूद्रों के द्वारा भोजन तैयार किया जाता था और इस भोजन का ब्राहमण लोग भी सेवन करते थे। बहुत से तान्त्रिक एवं सिद्धि की शिक्षा देने वाले शूद्र थे और ये मछुआरों, चमड़े का काम करने वालों, धोबी, लुहार आदि के कार्यों को करते थे।

आठवीं सदी ई० के एक ग्रंथ

का कथन है कि नयी संकर जातियों का उद्भव-वैश्य वर्ण की महिलाओं तथा छोटी जातियों के पुरुषों के बीच वैवाहिक संबंध हो जाने के कारण हुआ।

अनाश्रित शूद्रों का भी उल्लेख हुआ है। ये ऐसे शूद्र थे जो आत्म-निर्भर थे तथा जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी थी। ये शूद्र स्थानीय प्रशासनिक समितियों में भी थे और यदा-कदा ये भी शासक अभिजात वर्ग में शामिल हो जाते थे। शूद्रों की इस तरह की उपलब्धियाँ निश्चित रूप से काफी कम थीं।

जैन धर्म के कुछ धार्मिक कट्टरवादियों ने  इस अवधारणा को विकसित किया कि शूद्रों को धार्मिक दीक्षा प्राप्त करने  का अधिकार न होगा।  

नव शिक्षित वर्ग का उदय।: -

भूमि अनुदानों की अभूतपूर्व वृद्धि में भूमि के लेन-देन, स्वामित्व के प्रमाणों का रख-रखाव और भूमि की नाप के आंकड़ों को रखना जैसे कार्य भी निहित थे। इसका तात्पर्य यह हुआ कि एक ऐसे वर्ग की आवश्यकता थी, जो अपने कार्य में निपुण एवं पढ़ा-लिखा हो। लगभग एक दर्जन किस्म के लेखक एवं कागजात को रखने वाले वर्गों में कायस्थ भी एक वर्ग था। बंगाल से प्राप्त हुए व गुप्त अभिलेखों में पहली बार कायस्थ शब्द को उद्धृत किया गया है, लेकिन उत्तर-गुप्त कालीन अभिलेखों में रिकार्ड रखने वालों के नामों का भरपूर मात्रा में उल्लेख हुआ है।कायस्थों के अतिरिक्त करण, करणिक, पुस्तपाल, लेखक, दिविरा, अक्षरचांचू, धर्मलेखिन, अक्षपटालिक जैसे नामों का भरपूर उल्लेख हुआ है। यद्यपि इन शिक्षित लोगों को विभिन्न वणों से भर्ती किया गया था, लेकिन बाद में ये एक जाति विशेष में परिवर्तित हो गए और इन पर भी कड़े वैवाहिक प्रतिबंध लागू होते थे।

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