Hindi, asked by prakashsaste63, 2 months ago

1. आपातकाल (1975) के प्रभावों का वर्णन कीजिए।

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Answered by js6622056
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Explanation:

इमरजेंसी यानी आपातकाल की घोषणा के बाद 1975 में बहुत चालाकी और भोंडेपन के साथ चुनाव संबंधी नियम-कानूनों को संशोधित किया गया. इंदिरा गांधी की अपील को सुप्रीम कोर्ट में स्वीकार करवाया गया ताकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनके रायबरेली संसदीय क्षेत्र से चुनाव रद्द किए जाने के फैसले को उलट दिया जाए. साफ है कि आपातकाल की घोषणा केवल निजी फायदों और सत्ता बचाने के लिए की गई थी. इसीलिए श्रीमती गांधी ने जब राष्ट्रपति से आपातकाल की घोषणा करने का अनुरोध किया तो उन्होंने अपने मंत्रिमंडल तक की सलाह नहीं ली. आपातकाल लगाने के जिन कारणों को इंदिरा गांधी सरकार ने अपने ‘श्वेतपत्र’ में बताया, वे नितांत अप्रासंगिक हैं

आपातकाल की घोषणा के पहले ही सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी के आदेश दे दिए गए थे. बंदियोंं में लगभग सभी प्रमुख सांसद थे. उनकी गिरफ्तारी का उद्देश्य संसद को ऐसा बना देना था कि इंदिरा गांधी जो चाहें करा लें. उन दिनों कांग्रेस को अपनी पार्टी में भी विरोध का डर पैदा हो गया था. इसीलिए जब जयप्रकाश नारायण सहित दूसरे विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया गया तो कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्य चंद्रशेखर और संसदीय दल के सचिव रामधन को भी गिरफ्तार कर लिया गया.

साधारण कार्यकर्ताओं की बात जाने दीजिए बड़े नेताओं की गिरफ्तारी की सूचना भी उनके रिश्तेदारों, मित्रों और सहयोगियों को नहीं दी गई. उन्हें कहां रखा गया है इसकी भी कोई खबर नहीं दी गई. दो महीने तक मिलने-जुलने की कोई सूरत न थी. बंदियों को तंग करने, उनको अकेले में रखने, इलाज न कराने और शाम छह बजे से ही उन्हें कोठरी में बंद कर देने के सैकड़ों उदाहरण हैं. आपातकाल के पहले हफ्ते में ही करीब 15 हजार लोगों को बंदी बनाया गया. उनकी डाक सेंसर होती थी और जब मुलाकात की अनुमति भी मिली तो उस दौरान खुफिया अधिकारी वहां तैनात रहते थे. कहना न होगा कि ऐसे हालात में जेल के अफसरों का व्यवहार कैसा रहा होगा. वास्तव में ये अफसर स्वयं डरे हुए थे.

हवालातों में पुलिस दमन के शिकार अक्सर वे कार्यकर्ता हुए जो सत्याग्रह का संचालन करते हुए प्रचार सामग्री तैयार करते और बांटते थे. पुलिस अत्याचारों की बहुत-सी मिसालें हैं. सत्याग्रहियों और भूमिगत कार्यकर्ताओं को उनके सहयोगियों के नाम जानने, उनके ठिकानों का पता लगाने, उनके कामकाज की जानकारी हासिल करने के उद्देश्य से बहुत तंग किया गया. रात को भी सोने न देना, खाना न देना, प्यासा रखना या बहुत भूखा रखने के बाद बहुत खाना खिलाकर किसी प्रकार आराम न करने देना, घंटों खड़ा रखना, डराना-धमकाना, हफ्तों-हफ्तों तक सवालों की बौछार करते रहना जैसी चीजें बहुत आम थीं.

केरल के राजन को तो मशीन के पाटों के बीच दबाया तक गया. उसकी हड्डियों तक को तोड़ डाला गया. दिल्ली के जसवीर सिंह को उल्टा लटकाकर उसके बाल नोंचे गए. ऐसे लोगों को क्रूरता से ऐसी गुप्त चोटें दी गईं, जिसका कोई प्रमाण ही न रहे. बेंगलुरू में लारेंस फर्नांडिस (जॉर्ज फर्नांडिस के भाई) की इतनी पिटाई की गई कि वह सालों तक सीधे खड़े नहीं हो पाए. एक नवंबर, 1975 को राष्ट्रमंडल सम्मेलन में जिन छात्रों ने परचे बांटे, उन्हें भी बुरी तरह से पीटा गया. इस दौरान दो क्रातिकारियों किश्तैया गौड़ और भूमैया को फांसी दे दी गई.

महिला बंदियों के साथ भी अशोभनीय व्यवहार किया गया. जयपुर (गायत्री देवी) और ग्वालियर (विजयाराजे सिंधिया) की राजमाताओं को असामाजिक और बीमार बंदियों के साथ रखा गया. श्रीलता स्वामीनाथन (राजस्थान की कम्युनिस्ट नेता) को खूब अपमानित किया गया. मृणाल गोरे (महाराष्ट्र की समाजवादी नेता) और दुर्गा भागवत (समाजवादी विचारक) को पागलों के बीच रखा गया. महिला बंदियों के साथ गंदे मजाक की शिकायतें भी मिलीं.

इमरजेंसी के दौरान श्रीमती गांधी ने संविधान को तोड़ने-मरोड़ने का बहुत प्रयास किया और इसमें उन्हें तात्कालिक सफलता भी मिली. आपातकाल के पहले हफ्ते में ही संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 22 को निलंबित कर दिया गया. ऐसा करके सरकार ने कानून की नजर में सबकी बराबरी, जीवन और संपत्ति की सुरक्षा की गारंटी और गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंदर अदालत के सामने पेश करने के अधिकारों को रोक दिया गया. जनवरी 1976 में अनुच्छेद 19 को भी निलंबित कर दिया गया. इससे अभिव्यक्ति, प्रकाशन करने, संघ बनाने और सभा करने की आजादी को छीन लिया गया. राष्ट्रीय सुरक्षा काननू (रासुका) तो पहले से ही लागू था. इसमें भी कई बार बदलाव किए गए.

रासुका में 29 जून, 1975 के संशोधन से नजरबंदी के बाद बंदियों को इसका कारण जानने का अधिकार भी खत्म कर दिया गया. साथ ही नजरबंदी को एक साल से अधिक तक बढ़ाने का प्रावधान कर दिया गया. तीन हफ्ते बाद 16 जुलाई, 1975 को इसमें बदलाव करके नजरबंदियों को कोर्ट में अपील करने के अधिकार से भी वंचित कर दिया गया. 10 अक्टूबर, 1975 के संशोधन द्वारा नजरबंदी के कारणों की जानकारी कोर्ट या किसी को भी देने को अपराध बना दिया गया.

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