Hindi, asked by nitudevi964872, 5 hours ago

1. भारत की विविधताओं में एकता दर्शाने के लिए लेखक ने जो उपमाएं हैं, उन्हें संक्षेप में स्पष्ट कीजिए। T IT TO न​

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Answered by huzaifabhatia
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भारत एक विविधतापूर्ण देश है’। इसके विभिन्न भागों में भौगोलिक अवस्थाओं, निवासियों और उनकी संस्कृतियों में काफी अन्तर है । कुछ प्रदेश अफ्रीकी रेगिस्तानों जैसे तप्त और शुष्क हैं, तो कुछ ध्रुव प्रदेश की भांति ठण्डे है ।

कहीं वर्षा का अतिरेक है, तो कहीं उसका नितान्त अभाव है । तमिलनाडु, पंजाब और असम के निवासियों को एक साथ देखकर कोई उन्हें एक नस्ल या एक संस्कृति का अंग नहीं मान सकता । देश के निवासियों के अलग-अलग धर्म, विविधतापूर्ण भोजन और वस्त्र उतने ही भिन्न हैं, जितनी उनकी भाषाएं या बोलियां ।

इतनी और इस कोटि की विभिन्नता के बावजूद सम्पूर्ण भारत एकता के सूत्र में निबद्ध है । इस सूत्र की अनेक विधायें हैं, जिनकी जडें देश के सभी कोनों तक पल्लवित और पुष्पित हैं । बाहर विभिन्नताएं और विविधताएं भौतिक हैं, किन्तु भारतीयों के अभ्यन्तर में प्रवाहित एकता की अजस्र धारा भावनात्मक एवं रोगात्मक है । इसी ने देश के जन-मन को एकता के सूत्र में पिरो रखा है ।

भारत की एकता का यह भारतीय संस्कृति का स्तम्भ है । भारतीय संस्कृति अति प्राचीन है और वह अपनी विशिष्टताओं सहित विकसित होती रही है । इसके कुछ विशेष लक्षण हैं, जिन्होंने भारतीय एकता के सूत्र की जड़ों को और भी सुदृढ़ किया है ।

कुछ विशेष लक्षणों की कुछ विशेषताओं का उल्लेख नीचे किया जाता है:

I. भारतीय संस्कृति की धारा अविच्छिन्न रही है ।

II. यह धर्म, दर्शन और चिन्तन प्रधान रही है । यहां धर्म का अर्थ न ‘मजहब’ है और न ‘रिलीजन’ है । भारतीय संस्कृति का यह धर्म अति व्यापक, उदार एवं जीवन के सत्यों का पुंज है ।

ADVERTISEMENTS:

III. भारतीय संस्कृति का एक अलौकिक तत्व इसकी सहिष्णुता है । यहां सहिष्णुता का सामान्य अर्थ सहनशीलता नहीं वरन् गौरवपूर्ण शान्त विशाल मनोभाव है, जो स्वकीय-परकीय से ऊपर और समष्टिवाचक है ।

IV. यह जड़ अथवा स्थिर नहीं, बल्कि सचेतन और गतिशील है । इसने समय-काल के अनुरूप अपना कलेवर (आत्मा नहीं) बदला ही नहीं, वरन् उसे अति ग्रहणशील बनाया है ।

V. यह एकांगी नहीं, सर्वांगीण है । इसके सब पक्ष परिपक्व, समुन्नत, विकसित और सम्पूर्ण हैं । इसमें न कोई रिक्तता है और न संकीर्णता ।

भारतीय संस्कृति की इन्हीं विशेषताओं ने इस देश को एक सशक्त एवं सम्पूर्ण भावनात्मक एकता के सूत्र में बांध रखा है ।

भारत में सदैव राजनैतिक एकता रही । राष्ट्र व सम्राट, महाराजाधिराज जैसी उपाधियां, दिग्विजय और अश्वमेध व राजसूय यज्ञ भारत की जाग्रत राजनैतिक एकता के द्योतक रहे हैं । महाकाव्यकाल, मौर्यकाल, गुप्तकाल और उसके बाद मुगलकाल में भी सम्पूर्ण भारत एक शक्तिशाली राजनैतिक इकाई रहा ।

यही कारण है कि देश के भीतर छोटे-मोटे विवाद, बड़े-बड़े युद्ध और व्यापक उथल-पुथल के बाद भी राजनैतिक एकता का सूत्र खण्डित नहीं हुआ । साम्प्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रीयता और ऐसे ही अन्य तत्व उभरे और अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियों ने उनकी सहायता से देश की राष्ट्रीय एकता को खण्डित करने का प्रयास किया, किन्तु वे कभी भी सफल नहीं हो पाये ।

जब देश के भीतर युद्ध, अराजकता और अस्थिरता की आंधी चल रही थी तब भी कोटि-कोटि जनता के मन और मस्तिष्क से राजनैतिक एकता की सूक्ष्म, किन्तु सुदृढ़ कल्पना एक क्षण के लिए भी ओझल नहीं हो पाई । इतिहास साक्षी है कि राजनैतिक एकता वाले देश पर विदेशी शक्तियां कभी भी निष्कंटक शासन नहीं चला पाई । भारत का इतिहास इसी की पुनरोक्ति है ।

भारतीय संस्कृति का एक शक्तिशाली पक्ष इसकी धार्मिक एकता है । भारत के सभी धर्मों और सम्प्रदायों मे बाह्य विभिन्नता भले ही हो, किन्तु उन सबकी आत्माओं का स्रोत एक ही है । मोक्ष, निर्वाण अथवा कैवल्य एक ही गन्तव्य के पृथक-पृथक नाम हैं । भारतीय धर्मों में कर्मकाण्डों की विविधता भले ही हो किन्तु उनकी मूल भावना में पूर्ण सादृश्यता है ।

इसी धार्मिक एकता एवं धर्म की विशद कल्पना ने देश को व्यापक दृष्टिकोण दिया जिसमें लोगों के अभ्यन्तर को समेटने और जोड़ने की असीम शक्ति है । नानक, तुलसी, बुद्ध, महावीर सभी के लिए अभिनन्दनीय हैं । देश के मन्दिरों, मस्जिदों और गुरुद्वारों के समक्ष सब नतमस्तक होते है; तीर्थों और चारों धामों के प्रति जन-जन की आस्था इसी सांस्कृतिक एकता का मूल तत्व है ।

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