1. भाषा-व्यवस्था और भाषा-व्यवहार से आप क्या समझते हैं, उदाहरण दे
स्पष्ट कीजिए।by
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भाषा-व्यवस्था एवं भाषा-व्यवहार के अंतर के बीज स्विटजरलैण्ड निवासी सोस्यूर (1857-1913) द्वारा प्रतिपादित 'लॉ लांग´ (La langue) एवं ´ले परोल' (Le parole) में निहित हैं। ´ले परोल' व्यष्टिगत व्यवहार है और 'लॉ लांग´ की समष्टिगत सत्ता है। ´ले परोल' वक्ता का विशिष्ट वाक्-व्यवहार है जबकि 'लॉ लांग´ सामाजिक वस्तु है। इसे स्वन (Phone) और ध्वनि (Sound) के अन्तर से समझा जा सकता है। ध्वनि का प्रत्येक उच्चार स्वन है। इस दृष्टि से किसी भी ध्वनि के स्वन असंख्य हैं। स्वन की यथार्थ सत्ता तो है किन्तु उसका विवरण सम्भव नहीं है। ध्वनिवैज्ञानिक ध्वनि की विवेचना करता है। भाषा-व्यवस्था में किसी भाषा की पूरक वितरण एवं/ अथवा स्वतंत्र-परिवर्तन में वितरित ध्वनियों के समूह (ध्वनिग्राम अथवा स्वनिम) का अध्ययन करते हैं जो ध्वनि के धरातल पर भाषा-व्यवस्था की इकाई होती है। ध्वनिग्राम अथवा स्वनिम भाषिक-व्यवस्था की इकाई है। यह भौतिक यथार्थ नहीं है; भाषिक रूपपरक इकाई है। भाषा के समस्त वक्ता एवं प्रयोक्ता के मानस में ध्वनि ही रहती है जबकि यथार्थ में वह ध्वनि का नहीं अपितु स्वन का उच्चारण करता है। ´ले परोल' की संकल्पना भाषा-व्यवहार का आधार है। 'लॉ लांग´ की संकल्पना भाषा-व्यवस्था का आधार है। भाषा-व्यवस्था एवं भाषा-व्यवहार की संकल्पनाओं के अंतर को भाषाविज्ञान में प्रयुक्त अन्य युग्मों से भी समझा जा सकता है। ये हैं –
प्रस्तुत आलेख में हम भाषा-व्यवस्था और भाषा-व्यवहार के बारे में विचार करेंगे।
भाषा-व्यवस्था अमूर्त एवं रूपपरक अधिक है जबकि भाषा-व्यवहार मूर्त एवं अभिव्यक्तिपरक अधिक है। किसी भाषा के व्याकरण में उस भाषा की व्यवस्थाओं एवं संरचनाओं के नियमों का निर्धारण होता है। भाषा का प्रयोक्ता व्याकरणिक नियमों का भले ही जानकार नहीं होता किन्तु वह अपनी भाषा का प्रयोग करता है। व्याकरणिक नियमों के निर्धारण करने वाले तथा भाषा का प्रयोग करनेवाले का पतंजलि-महाभाष्य में रोचक प्रसंग मिलता है। वैयाकरण तथा रथ चलानेवाले के बीच शब्द प्रयोग को लेकर वाद-विवाद होता है। प्रासंगिक अंश उद्धृत है-
वैयाकरण ने पूछा – इस रथ का 'प्रवेता´ कौन है?
सारथी का उत्तर – आयुष्मान्, मैं इस रथ का 'प्राजिता´ हूँ।
(प्राजिन् = सारथी, रथ-चालक, गाड़ीवान)
वैयाकरण – प्राजिता अपशब्द है।
सारथी का उत्तर – (देवानां प्रिय) आप केवल 'प्राप्तिज्ञ´ हैं; 'इष्टिज्ञ´ नहीं।
('प्राप्तिज्ञ´ = नियमों का ज्ञाता; 'इष्टिज्ञ´ = प्रयोग का ज्ञाता)
(डॉ. उदयनारायण तिवारी : भाषाविज्ञान का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ 16)
भाषा-व्यवहार एवं भाषा-प्रयोग की इस प्रकृति के कारण सामान्य भाषाविज्ञान जहाँ किसी भाषा की व्यवस्था एवं संरचना के नियमों का निर्धारण करने के लिए अध्ययन की प्रविधियों की तलाश करता है वहीं सामान्य भाषाविज्ञान के इतर अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के अनेक अध्ययन विभागों तथा ज्ञानानुशासन के अन्य अनुशासनों से अन्तः सम्बंध होने के कारण अनेक नए अध्ययन विषयों पर भी कार्य सम्पन्न हो रहे हैं जिनके सम्बंध में आगे विचार किया जाएगा।
Explanation:
भाषा व्यवस्था - यह संरचना के निश्चित नियमों का निर्धारण करती है। वह प्रकृति में निश्चित, निर्धारित एवं समरूपी होती है।
उदाहरण: मैं भारतीय हूंँl
भाषा व्यवहार - भाषा व्यवहार व्यक्ति के द्वारा होता है। इसमें व्यक्ति स्वयं शब्द चयन, वाक्य रचना, प्रयोग वाचन शैली आदि का उपयोग करता हैं।
उदाहरण: मुझे पुस्तक दीजिए।
मुझे किताब दीजिए।
भाषा - भाषा शब्द को संस्कृत के भाषा धातु से लिया गया है। जिसका अर्थ होता है बोलना।
भाषा से तात्पर्य वह साधन जिसमें मनुष्य अपने विचारों या भावों को एक-दूसरे से आदान-प्रदान करता है।
भाषा की प्रकृति भाषा के सहित गुणधर्म को कहते हैं। इसे भाषा की विशेषता कह सकते हैं।
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