Hindi, asked by mavishivam333, 6 months ago

1. गुरु गोबिंद' दोऊ खड़े काके लागू पायँ।
बलिहारी गुरु आपनो, जिन गोबिंद दियौ बताय।।
2. जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहि।
प्रेम गली अति साँकरी', तामे दो न समाहि ।।
3. काँकर पाथर जोरि कै, मसजिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।
4. पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार।
ताते ये चाकी भली, पीस खाय संसार ।।
5. सब धरती कागद करौं, लेखनि सब बनराय।
सात समंद की मसि करौं, गुरु गुन लिखा न जाय।​

Answers

Answered by ranurai58
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Answer:

answer 1.

गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय – कबीर के दोहे

कबीर के दोहे का हिंदी में अर्थ: गुरू और गोबिंद (भगवान) एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए – गुरू को अथवा गोबिन्द को? ऐसी स्थिति में गुरू के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है जिनके कृपा रूपी प्रसाद से गोविन्द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

answer 2.

भावार्थ: जब तक मन में अहंकार था तब तक ईश्वर का साक्षात्कार न हुआ, जब अहंकार (अहम) समाप्त हुआ तभी प्रभु मिले | जब ईश्वर का साक्षात्कार हुआ, तब अहंकार स्वत: ही नष्ट हो गया | ईश्वर की सत्ता का बोध तभी हुआ | प्रेम में द्वैत भाव नहीं हो सकता, प्रेम की संकरी (पतली) गली में केवल एक ही समा सकता है - अहम् या परम ! परम की प्राप्ति के लिए अहम् का विसर्जन आवश्यक है

answer 3

इस दोहे में कबीर ने इस्लाम की धार्मिक कुरीतियों पर कटाक्षकिया है।कबीर के अनुसार मनुष्य को सच्ची भक्ति करनी चाहिए।ढोंग पाखंड दिखावे से ईश्वर नहीं प्राप्त होते।कबीर कहते हैं कि कंकड़ पत्थर एकत्रितकरके मनुष्य ने मस्जिद बना ली। उसी मस्जिद में मौलवी जोर जोर से चिल्लाकर नमाज़ अदा करता है अर्थात मुर्गे की तरह बाँग देता है तथा ईश्वर काआवाहन करता है । इसी रूढ़िवादिता पर व्यंग करते हुए वे मानव समाज से प्रश्न करते हैं कि क्या खुदा बहरा है ?? जो हमें इस तरह से चिल्लाने किआवश्यकता है। क्या शांति से की गयी एवं मन ही मन में की गयी प्रार्थना उन तक नहीं पहुँचती है ? वे इस दोहे में ढोंग आडंबर तथा पाखंड का विरोध करतेहुए नज़र आये हैं। ईश्वर तो सर्वज्ञ हैं। वे अन्तर्यामी हैं। वे तो सभी के मन की बात जानते हैं। फिर यह दिखावा क्यों ? इस दोहे के माध्यम से कबीर नेसमाज में व्याप्त रूढ़ियों तथा धार्मिक कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाई है।

answer 4

स्वंय को प्रतीकात्मक भक्ति में व्यस्त करने के बजाय व्यक्ति को मन से निर्गुण परम ब्रह्म की उपासना करनी चाहिए। मूर्ति में भगवान् है ऐसा मान कर केवल मूर्ति की ही पूजा करना और अपने आचरण में शुद्धता नहीं लाना, भक्ति नहीं है। यदि पत्थर को नहीं पूजना है तो इश्वर है कहाँ ? इश्वर विश्वास और श्रद्धा में है, सत्य आचरण में है, जो सत्य है वही ईश्वर है। मन की शुद्धता के बगैर पत्थर को पूजने से कोई लाभ नहीं होने वाला। वस्तुतः कबीर साहेब अंधविश्वास पर चोट कर रहे हैं की क्या ईश्वर मूर्ति में है, नहीं वो तो कण कण में व्याप्त है वो ना तो तीरथ में है और नाही ही किसी अन्य स्थान विशेष में, और यदि है तो हर जगह है। कबीर के समय कुछ लोगों ने धर्म के 'टेंडर' ले रखे थे। आम जन को ये स्वयंभू धर्म के ठेकेदार बात बात पर लुटते थे। क्रियाकर्म, वृहद धार्मिक आयोजन, बलि प्रथा, आदि से आम जन का जीवन दूभर हो चूका था और ऊपर से संस्कृत भाषा में लिखे धार्मिक ग्रन्थ। कबीर साहेब ने इसका जमकर विरोध किया और धर्म के नाम पर शोषित आम जनता को एक सरल राह दिखाई की ईश्वर को प्राप्त करने के लिए उन्हें ना तो मूर्ति पूजा की आवश्यकता है, नाही किसी एजेंट की और नाही भारीभरकम धार्मिक ग्रंथों की। शुद्ध हृदय, आचरण शुद्धता, नेक राह और सद्कर्म करके कहीं भी ईश्वर को याद किया जाय तो यह ईश्वर की उपासना ही है।

answer 5.

भावार्थ :- यदि सारी धरती को कागज़ मान लिया जाए , सारे जंगल - वनों की लकड़ी की कलम बना ली जाए तथा सातों समुद्र स्याही हो जाएँ तो भी हमारे द्वारा कभी हमारे गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते है ।हमारे जीवन मे हमारे गुरु की महिमा सदैव अनंत होती है, गुरु का ज्ञान हमारे लिए सदैव असीम और अनमोल होता है ।

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