1. जाति-प्रथा को यदि श्रम-विभाजन मान लिया जाए, तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर
आधारित है। कुशल व्यक्ति या सक्षम अभिक-समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता
इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति-
प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, दूसरे ही
दृष्टिकोण जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार पहले से ही अर्थात् गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा
निर्धारित कर दिया जाता है।
जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्व निर्धारण ही नहीं करती, बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है,
भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्रायः आती है, क्योंकि
उद्योग-धधे की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण
मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेश
बदलने की स्वतंत्रता न हो, तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्यो चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति-प्रथा किसी
व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती हैं, जो उसका पैतृक पेशा न हों, भले ही वह उसमें पारंगत है। इस प्रकार
पेशा-परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।
क) कशल श्रमिक समाज का निर्माण करने के लिए क्या आवश्यक है?
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Bharat ke logo ko jyada lalach nahi hota kyunki hamare desh me ek dusre ki bhawnao ki kadar ki jati hai.or dusro ke dhan ko apna manna pap mante hain.
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