1)
कस्मात् उच्चतरः पिता?
i) लाभानामुत्तमं किम?
1) केन स्विन्न प्रकाशते?
) यक्ष-युधिष्ठिर संवादः कस्मात् ग्रन्थात् उद्धृत
Answers
Answer:
व्यक्ति को खुद से यह सवाल पूछना चाहिए कि मैं कौन हूं। क्या शरीर हूं जो मृत्यु के समय नष्ट हो जाएगा? क्या आंख, नाक, कान आदि पांचों इंद्रियां हूं जो शरीर के साथ ही नष्ट हो जाएंगे? तब क्या में मन या बुद्धि हूं। अर्थात मैं जो सोचता हूं या सोच रहा हूं- क्या वह हूं? जब गहरी सुषुप्ति आती है तब यह भी बंद होने जैसा हो जाता है। तब मैं क्या हूं? व्यक्ति खुद आंख बंद करके इस पर बोध करे तो उसे समझ में आएगा कि मैं शुद्ध आत्मा, चेतना और सर्वसाक्षी हूं। ऐसा एक बार के आंख बंद करने से नहीं होगा।
यक्ष प्रश्न: जीवन का उद्देश्य क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर: जीवन का उद्देश्य उसी चेतना को जानना है जो जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है। उसे जानना ही मोक्ष है।
टिप्पणी : बहुत से लोगों का उद्देश्य धन कमाना हो सकता है। धन से बाहर की समृद्धि प्राप्त हो सकती है, लेकिन ध्यान से भीतर की समृद्धि प्राप्त होती है। मरने के बाद बाहर की समृद्धि यहीं रखी रह जाएगी लेकिन भीतर की समृद्धि आपके साथ जाएगी। महर्षि पतंजलि ने मोक्ष तक पहुंचने के लिए सात सीढ़ियां बता रखी है:- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान। ध्यान के बाद समाधी या मोक्ष स्वत: ही प्राप्त होता है।
यक्ष प्रश्न: जन्म का कारण क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर: अतृप्त वासनाएं, कामनाएं और कर्मफल ये ही जन्म का कारण हैं।
टिप्पणी : जन्म लेना और मरना एक आदत है। इस आदत से छुटकारा पाने का उपाय उपनिषद, योग और गीता में पाया जाता है। वासनाएं और कामनाएं अनंत होती है। जब तक यह रहेगी तब तक कर्मबंधन होता रहेगा और उसका फल भी मिलता रहेगा। इस चक्र को तोड़ने वाला ही जितेंद्रिय कहलाता है।
यक्ष प्रश्न: जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त कौन है?
युधिष्ठिर उत्तर: जिसने स्वयं को, उस आत्मा को जान लिया वह जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है।
टिप्पण : मैं कौन हूं और मेरा असली स्वरूप क्या है। इस सत्य को जानने वाला ही जन्म और मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। यह जानने के लिए अष्टांग योग का पालन करना चाहिए।
यक्ष प्रश्न:- वासना और जन्म का सम्बन्ध क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर:- जैसी वासनाएं वैसा जन्म। यदि वासनाएं पशु जैसी तो पशु योनि में जन्म। यदि वासनाएं मनुष्य जैसी तो मनुष्य योनि में जन्म।
टिप्पणी : वासना का अर्थ व्यापक है। यह चित्त की एक दशा है। हम जैसा सोचते हैं वैसे बन जाते हैं। उसी तरह हम जिस तरह की चेतना के स्तर को निर्मित करते हैं अगले जन्म में उसी तरह की चेतना के स्तर को प्राप्त हो जाते है। उदाहरणार्थ एक कुत्ते के होश का स्तर हमारे होश के स्तर से नीचे है लेकिन यदि हम एक बोतल शराब पीले तो हमारे होश का स्तर उस कुत्ते के समान ही हो जाएगा। संभोग के लिए आतुर व्यक्ति के होश का स्तर भी वैसा ही होता है।
यक्ष प्रश्न: संसार में दुःख क्यों है?
युधिष्ठिर उत्तर: संसार के दुःख का कारण लालच, स्वार्थ और भय हैं।
टिप्पणी : लालच का कोई अंत नहीं, स्वार्थी का कोई मित्र नहीं और भयभीत व्यक्ति का कोई जीवन नहीं। भय से ही सभी तरह के मानसिक विकारों का जन्म होता है। कई दफे लालच मौत का कारण भी बन जाता है। लालच को बुरी बला कहा गया है। लालची व्यक्ति का लालच बढ़ता ही जाता है और वह अपन लालच के कारण ही दुखी रहता है।
स्वार्थी व्यक्ति तो सर्वत्र पाए जाते हैं। स्वार्थी आदमी स्वयं का उल्लू सीधा करने के लिए किसी की भी जान को भी दांव पर लगा सकते हैं। स्वार्थी के मन में ईर्ष्या प्रधान गुण होता है।
यक्ष प्रश्न: तो फिर ईश्वर ने दुःख की रचना क्यों की?
युधिष्ठिर उत्तर: ईश्वर ने संसार की रचना की और मनुष्य ने अपने विचार और कर्मों से दुःख और सुख की रचना की।
टिप्पण : मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही बन जाता है। नकारात्मकता स्वत: ही आती है लेकिन सकारात्मक विचारों को लाना पड़ता है। लाने की मेहनत कोई नहीं करता है इसीलिए वह बुरे विचार सोचकर बुरे कर्मों में फंसता रहता है। बुरे कर्मों का परिणाम भी बुरा ही होता है।
यक्ष प्रश्न: क्या ईश्वर है? कौन है वह? क्या वह स्त्री है या पुरुष?
युधिष्ठिर उत्तर: कारण के बिना कार्य नहीं। यह संसार उस कारण के अस्तित्व का प्रमाण है। तुम हो इसलिए वह भी है उस महान कारण को ही आध्यात्म में ईश्वर कहा गया है।
वह न स्त्री है न पुरुष।
टिप्पणी : यह जगत या संसार ही इस बात का सबूत है कि ईश्वर है। उसके होने के बगैर यह हो नहीं सकता। जैसे शरीर के होने का सबूत ही ये है कि आत्मा है या तुम हो। तुम्हें (पढ़ने और लिखने वाले को) ही तो आत्मा कहा गया है। ईश्वर न तो पुरुष है और न स्त्री उसी तरह जैसे कि आत्मा न तो स्त्री है और न पुरुष। स्त्री और पुरुष तो शरीर की भावना है। यदि आत्मा स्त्री जैसे शरीर में होगी तो वैसी भावना करेगी। जिस तरह जल, हवा और आत्मा का कोई आकार प्रकार नहीं होता लेकिन उन्हें जिस भी पात्र में समाहित किया जाता है वह वैसे ही हो जाते हैं।
यक्ष प्रश्न: उसका (ईश्वर) स्वरूप क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर: वह सत्-चित्-आनन्द है, वह निराकार ही सभी रूपों में अपने आप को स्वयं को व्यक्त करता है।
यक्ष प्रश्न: वह अनाकार (निराकार) स्वयं करता क्या है?
युधिष्ठिर: वह ईश्वर संसार की रचना, पालन और संहार करता है।
यक्ष प्रश्न: यदि ईश्वर ने संसार की रचना की तो फिर ईश्वर की रचना किसने की?
युधिष्ठिर उत्तर: वह अजन्मा अमृत और अकारण है।
Answer:
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