1) मनुष्य की प्रगति का रहस्य क्या है?
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मनुष्य ने जब से बुद्धि-विवेक पाया है, तब से लगातार वह के सुख की खोज कर रहा है। वह खोज आज भी जारी है और आगे भी रहेगी। इसी सुख प्राप्ति की एषणा (इच्छा) से प्रेरित होकर मनुष्य धर्म-जीवन में आया। यह एषणा है मात्र मनुष्य में, अन्य जीव-जंतुओं में नहीं। ऐसे जानवरों में, जो मनुष्य के निकट रहते हैं, जिनका मनुष्य की जीवन पद्धति के साथ कुछ हद तक समझौता हो गया है, उनमें भी कुछ हद तक यह इच्छा आ गई है, मगर अच्छी तरह से है मात्र मनुष्य में। यह एषणा मनुष्य में है, इसीलिए उसका नाम मनुष्य है। मनुष्य माने जिनमें मन की प्रधानता है। इस सुख को पाने की चेष्टा से ही धर्म की उत्पत्ति हुई है। मनुष्य जो कुछ पाता है, उसे देखने के बाद सोचता है कि यह तो बहुत थोड़ा है, उसे उससे अधिक चाहिए। जब वह ज्यादा भी मिल गया तो वह भी थोड़ा लगा। फिर वह और प्रयास करता है, और की इच्छा करता है। यानी आरंभ में जो थोड़ी सी कुछ चीज मिली थी, जिसे पाने से पहले लगा था कि उससे उसे सुख की प्राप्ति हो जाएगी और उसके बाद उसे फिर वैसी कोई चाह नहीं रहेगी, वह चाह नहीं मिटी। और चाहिए, और चाहिए, अल्प से संतोष नहीं हुआ। मनुष्य ने अंतत: देखा कि उसे अनंत चाहिए। जिसकी सीमाएं हैं, जो सीमित है, उससे उसकी सुख की प्यास नहीं मिट सकती। फिर मनुष्य खोज में लग गया। पता लगा कि ऐसी तो सिर्फ एक ही सत्ता है, जो अनंत है -और वह है परम पुरुष की। वही परम आनंद दे सकता है। इसलिए उसे परम पुरुष की खोज करनी होगी। सिवाय उनके कोई और उसे ऐसी तृप्ति नहीं दे सकता। इसी सुख प्राप्ति की एषणा से धर्म-जीवन का प्रारंभ हुआ। यह जो परम पुरुष को पाने का प्रयास है, यह जो धर्म की साधना है, वह सबको करनी चाहिए। इसे करना ही मनुष्य की पहचान है। जो इसे करते हैं, वही मनुष्य हैं। जो इसे नहीं करते वे मानवता को कलुषितकर देते हैं। इसलिए मनुष्य को यदि सही इन्सान बनना है, मनुष्य बनना है तो धर्म जीवन में उन्हें आना है। मानव मन की यही विशेषता है कि अल्प से उसे संतोष ही नहीं मिलता। सुख जहां अनंत तक पहुंच गया है, उस सुख को आनंद कहते हैं। मनुष्य वास्तव में सुख नहीं चाहता, वह चाहता है आनंद। सुख प्राप्ति की एषणा से प्रेरित होकर वह अनंत की राह अपनाता है। मनोविज्ञान की नजर से देखा जाए तो भी सुख और आनंद में अंतर प्रतीत होगा। जब अनुभूति की तरंगें मन के भीतर रह गईं, तब उसे कहेंगे सुख और जब तरंगें मन के भीतर में ही नहीं, बल्कि बाहर भी आ गईं, ऐसा लगा कि उसकी तरंगें बाहर भी हैं - दसों दिशाओं में प्रवाहित हो रही हैं, तो उसे कहेंगे आनंद। तुम लोग देखोगे कि लौकिक सुख में भी कभी-कभी सुख की तरंगें इतनी अधिक हो जाती हैं कि स्वयं को संभालना कठिन हो जाता है। आदमी चिल्ला पड़ता है, कूदने लगता है, खूब हंसता है, कभी- कभी रोने भी लगता है। उसी प्रकार का भाव जब बराबर बना रहे तो उसे कहते हैं आनंद। अर्थात उसके मन का जो सुख है, वह मन के अंदर सीमित नहीं रह पाया। भौतिक सुख सीमित रहता है, किंतु आनंद बाहर छलकता है। परम पुरुष हैं आनंद के आधार। इसलिए परम पुरुष की प्राप्ति से मनुष्य को आनंद मिलता है। तुम लोग धर्म जीवन में हो- यही है मानव जीवन की पराकाष्ठा और यही है मानव जीवन की पहचान। धर्म जीवन में तुम लोग रहोगे, और अन्य लोग धर्म जीवन में नहीं रहेंगे, यह वांछनीय नहीं है। तुम्हारे इस प्रयास से कि सभी उस आनंद के रास्ते पर रहें, इससे दुनिया में शांति की प्रतिष्ठा होती है। और शांति की प्रतिष्ठा होने से मनुष्य भौतिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन -दोनों में आगे बढ़ सकेगा। लौकिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन दोनों में संतुलन रहने से ही सही प्रगति होगी। इसके अलावा किसी अन्य प्रकार से संतुलित प्रगति नहीं हो सकती।
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vigyaan manushaya ki pragati ka rahasy h