Hindi, asked by neetugoel798, 10 months ago

1 निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर प्रश्नों के उत्तर दीजिए |


चरित्र का मूल भी भावों के विशेष प्रकार के संगठन में ही समझना चाहिए | लोकरक्षा और लोकरंजन की सारी व्यवस्था का ढाँचा इन्हीं पर ठहराया गया है | धर्म–शासन, राज–शासन, मत–शासन सब में इनसे पूरा काम लिया गया है | इनका सदुपुओग भी हुआ है और दुरूपयोग भी | जिस प्रकार लोक-कल्याण के व्यापक उद्देश्य की सिद्धि के लिए मनुष्य के मनोविकार काम में लाए गए हैं, उसी प्रकार संप्रदाय या संस्था के संकुचित और परिमित विधान की सफलता के लिए भी | सब प्रकार के शासन में चाहे धर्म-शासन हो, चाहे राज-शासन हो, मनुष्य-जाति से भय और लोभ से पूरा काम लिया गया है | दंड का भय और अनुग्रह का लोभ दिखाते हुए राज-शासन तथा नरक का भय और स्वर्ग का लोभ दिखाते हुए धर्म-शासन और मत-शासन चलते आ रहे हैं | इसके द्वारा भय और लोभ का परिवर्तन सीमा के बाहर भी प्राय: हुआ है और होता रहता है | जिस प्रकार शासक वर्ग अपनी रक्षा और स्वार्थसिद्धि के लिए भी इनसे काम लेते आए हैं, उसी प्रकार धर्म प्रवर्तक और आचार्य अपने स्वरुप वैचित्र्य की रक्षा और अपने प्रभाव की प्रतिष्ठा के लिए भी | शासक वर्ग अपने अन्याय और अत्याचार के विरोध की शांति के लिए भी डराते और ललचाते आए हैं | मत-प्रवर्तक अपने द्वेष और संकुचित विचारों के प्रचार के लिए भी कँपाते और डराते आए हैं | एक जाति को मूर्ति –पूजा करते देख दूसरी जाती के मत-प्रवर्तकों ने उसे पापों से गिना है | एक संप्रदाय को भस्म और रुद्राक्ष धारण करते देख दूसरे संप्रदाय के प्रचारको उनके दर्शन तक को पाप माना है |


(क) लोकरंजन की व्यवस्था का ढाँचा किस पर आधारित है तथा इसका उपयोग कहाँ किया गया

है|

(ख) धर्म-प्रवर्तकों ने स्वर्ग-नरक का भय और लोभ क्यों दिखाया है ?

(ग) शासन व्यवस्था किन कारणों से भय और लालच का सहारा लेती ?

(घ) प्रस्तुत गयांश का मूलभाव अपने शब्दों में दीजिए |

(ड) गद्यांश के लिए उचित शीर्षक दीजिए |

(च) ‘सफलता’ शब्द का विलोम शब्द लिखिए |

Answers

Answered by ranyodhmour892
5

Answer:

  1. लोकरक्षा और लोकरंजन की सारी व्यवस्था का ढाँचा इन्हीं पर ठहराया गया है | धर्म–शासन, राज–शासन, मत–शासन सब में इनसे पूरा काम लिया गया है
  2. दंड का भय और अनुग्रह का लोभ दिखाते हुए राज-शासन तथा नरक का भय और स्वर्ग का लोभ दिखाते हुए धर्म-शासन और मत-शासन चलते आ रहे हैं | इसके द्वारा भय और लोभ का परिवर्तन सीमा के बाहर भी प्राय: हुआ है और होता रहता है
  3. इसके द्वारा भय और लोभ का परिवर्तन सीमा के बाहर भी प्राय: हुआ है और होता रहता है | जिस प्रकार शासक वर्ग अपनी रक्षा और स्वार्थसिद्धि के लिए भी इनसे काम लेते आए हैं, उसी प्रकार धर्म प्रवर्तक और आचार्य अपने स्वरुप वैचित्र्य की रक्षा और अपने प्रभाव की प्रतिष्ठा के लिए भी
  4. दंड का भय और अनुग्रह का लोभ दिखाते हुए राज-शासन तथा नरक का भय और स्वर्ग का लोभ दिखाते हुए धर्म-शासन और मत-शासन चलते आ रहे हैं | इसके द्वारा भय और लोभ का परिवर्तन सीमा के बाहर भी प्राय: हुआ है और होता रहता है | जिस प्रकार शासक वर्ग अपनी रक्षा और स्वार्थसिद्धि के लिए भी इनसे काम लेते आए हैं, उसी प्रकार धर्म प्रवर्तक और आचार्य अपने स्वरुप वैचित्र्य की रक्षा और अपने प्रभाव की प्रतिष्ठा के लिए भी | शासक वर्ग अपने अन्याय और अत्याचार के विरोध की शांति के लिए भी डराते और ललचाते आए हैं | मत-प्रवर्तक अपने द्वेष और संकुचित विचारों के प्रचार के लिए भी कँपाते और डराते आए हैं | एक जाति को मूर्ति –पूजा करते देख दूसरी जाती के मत-प्रवर्तकों ने उसे पापों से गिना है | एक संप्रदाय को भस्म और रुद्राक्ष धारण करते देख दूसरे संप्रदाय के प्रचारको उनके दर्शन तक को पाप माना है |

Answered by shrutisharma4567
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Explanation:

चरित्र का मूल भी भावों के विशेष प्रकार के संगठन में ही समझना चाहिए | लोकरक्षा और लोकरंजन की सारी व्यवस्था का ढाँचा इन्हीं पर ठहराया गया है | धर्म–शासन, राज–शासन, मत–शासन सब में इनसे पूरा काम लिया गया है | इनका सदुपुओग भी हुआ है और दुरूपयोग भी | जिस प्रकार लोक-कल्याण के व्यापक उद्देश्य की सिद्धि के लिए मनुष्य के मनोविकार काम में लाए गए हैं, उसी प्रकार संप्रदाय या संस्था के संकुचित और परिमित विधान की सफलता के लिए भी | सब प्रकार के शासन में चाहे धर्म-शासन हो, चाहे राज-शासन हो, मनुष्य-जाति से भय और लोभ से पूरा काम लिया गया है | दंड का भय और अनुग्रह का लोभ दिखाते हुए राज-शासन तथा नरक का भय और स्वर्ग का लोभ दिखाते हुए धर्म-शासन और मत-शासन चलते आ रहे हैं | इसके द्वारा भय और लोभ का परिवर्तन सीमा के बाहर भी प्राय: हुआ है और होता रहता है | जिस प्रकार शासक वर्ग अपनी रक्षा और स्वार्थसिद्धि के लिए भी इनसे काम लेते आए हैं, उसी प्रकार धर्म प्रवर्तक और आचार्य अपने स्वरुप वैचित्र्य की रक्षा और अपने प्रभाव की प्रतिष्ठा के लिए भी | शासक वर्ग अपने अन्याय और अत्याचार के विरोध की शांति के लिए भी डराते और ललचाते आए हैं | मत-प्रवर्तक अपने द्वेष और संकुचित विचारों के प्रचार के लिए भी कँपाते और डराते आए हैं | एक जाति को मूर्ति –पूजा करते देख दूसरी जाती के मत-प्रवर्तकों ने उसे पापों से गिना है | एक संप्रदाय को भस्म और रुद्राक्ष धारण करते देख दूसरे संप्रदाय के प्रचारको उनके दर्शन तक को पाप माना है |

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