1. नजानू क्या कहना चाहता था? क्या उसकी इच्छा पूरी हुई?
Answers
Explanation:
परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण करना क्या है? अगर कोई केवल प्रभु के लिए मिशनरी (धर्म-प्रचार सम्बन्धी) काम करता है, तो क्या यह परमेश्वर की इच्छा का पालन करना है?
संदर्भ के लिए बाइबल के पद:
"तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरी भी है कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख" (मत्ती 22:37-39)।
"यदि कोई मुझ से प्रेम रखेगा तो वह मेरे वचन को मानेगा, और मेरा पिता उससे प्रेम रखेगा, और हम उसके पास आएँगे और उसके साथ वास करेंगे। जो मुझ से प्रेम नहीं रखता, वह मेरे वचन नहीं मानता" (यूहन्ना 14:23-24)।
"यदि तुम मेरे वचन में बने रहोगे, तो सचमुच मेरे चेले ठहरोगे" (यूहन्ना 8:31)।
"जो मुझ से, 'हे प्रभु! हे प्रभु!' कहता है, उनमें से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है। उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, 'हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्चर्यकर्म नहीं किए?' तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, 'मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ'" (मत्ती 7:21-23)।
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
हर युग में, जब परमेश्वर संसार में कार्य करता है तब वह मनुष्य को कुछ वचन प्रदान करता है, मनुष्य को कुछ सत्य बताता है। ये सत्य ऐसे मार्ग के रूप में कार्य करते हैं जिसके मुताबिक मनुष्य को चलना है, ऐसा मार्ग जिसमें मनुष्य को चलना है, ऐसा मार्ग जो मनुष्य को परमेश्वर का भय मानने और दुष्टता से दूर रहने में सक्षम बनाता है, और ऐसा मार्ग जिसे मनुष्य को अभ्यास में लाना चाहिए और अपने जीवन में और अपनी जीवन यात्राओं के दौरान उसके मुताबिक चलना चाहिए। यह इन्हीं कारणों से है कि परमेश्वर इन वचनों को मनुष्य को प्रदान करता है। ये वचन जो परमेश्वर से आते हैं उनके मुताबिक ही मनुष्य को चलना चाहिए, और उनके मुताबिक चलना ही जीवन पाना है। यदि कोई व्यक्ति उनके मुताबिक नहीं चलता है, उन्हें अभ्यास में नहीं लाता है, और अपने जीवन में परमेश्वर के वचनों को नहीं जीता है, तो वह व्यक्ति सत्य को अभ्यास में नहीं ला रहा है। और यदि वे सत्य को अभ्यास में नहीं ला रहे हैं, तो वे परमेश्वर का भय नहीं मान रहे हैं और दुष्टता से दूर नहीं रह रहे हैं, और न ही वे परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं। यदि कोई परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकता है, तो वह परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त नहीं कर सकता है; इस प्रकार के व्यक्ति के पास कोई परिणाम नहीं होता है।