1. पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दियों में भौगोलिक खोजों के महत्त्व की व्याख्या कीजि
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भारतीय योगदान भूगोल को सृष्टि तथा मानव की उत्पत्ति संबद्ध मानते हुए शुरू होता है। वैदिक काल में भूगोल से संबंधित वर्णन वैदिक रचनाओं में प्राप्त होते हैं। ब्रह्मांड, पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि, अकाश, सूर्य, नक्षत्र तथा राशियों का विवरण वेदों, पुराणों और अन्य ग्रंथों में दिया ही गया है किंतु इतस्तत: उन ग्रंथों में सांस्कृतिक तथा मानव भूगोल की छाया भी मिलती है। भारत में अन्य शास्त्रों के साथ साथ ज्योतिष, ज्यामिति तथा खगोल का भी विकास हुआ था जिनकी झलक प्राचीन खंडहरों या अवशेष ग्रंथों में मिलती है। महाकाव्य काल में सामरिक, सांस्कृतिक भूगोल के विकास के संकेत मिलते हैं। भू का अर्थ पृथ्वी है
यूनानी योगदान
यूनान के दार्शनिकों ने भूगोल के सिद्धांतों की चर्चा की थी। लगभग 900 ईसा पूर्व होमर ने बतलाया था कि पृथ्वी चौड़े थाल के समान और ऑसनस नदी से घिरी हुई है। होमर ने अपनी पुस्तक इलियड में चारों दिशाओं से बहने वाली पवने बोरस, ह्यूरस इत्यादि का वर्णन किया है। मिलेट्स के थेल्स ने सर्वप्रथम बतलाया कि पृथ्वी मण्डलाकार है। पाइथैगोरियन संप्रदाय के दार्शनिकों ने मण्डलाकार पृथ्वी के सिद्धांत को मान लिया था क्योंकि मण्डलाकार पृथ्वी ही मनुष्य के समुचित वासस्थान के योग है। पारमेनाइड्स (450 ईसा पूर्व) ने पृथ्वी के जलवायु कटिबंधों की ओर संकेत किया था और यह भी बतलाया था कि उष्णकटिबंध गरमी के कारण तथा शीत कटिबंध शीत के कारण वासस्थान के योग्य नहीं है, किंतु दो माध्यमिक समशीतोष्ण कटिबंध आवास योग्य हैं।
एच॰ एफ॰ टॉजर ने हिकैटियस (500 ईसा पूर्व) को भूगोल का पिता माना था जिसने स्थल भाग को सागरों से घिरा हुआ माना तथा दो महादेशों का ज्ञान दिया।
अरस्तु (Aristotle) (384-322 ईसा पूर्व) वैज्ञानिक भूगोल का जन्मदाता था। उसके अनुसार मण्डलाकार पृथ्वी के तीन प्रमाण थे -
(क) पदार्थो का उभय केंद्र की ओर गिरना,
(ख) ग्रहण में मण्डल ही चंद्रमा पर गोलाकार छाया प्रतिबिंबित कर सकता है तथा
(ग) उत्तर से दक्षिण चलने पर क्षितिज का स्थानांतरण और नयी नयी नक्षत्र राशियों का उदय होना। अरस्तु ने ही पहले पहल समशीतोष्ण कटिबंध की सीमा क्रांतिमंडल से घ्रुव वृत्त तक निश्चित की थी।
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