1.
पद
नरहरि ! चंचल है मति मेरी,
कैसे भगति करूं मैं तेरी।।
तूं मोहि देखै, हौँ तोहि देखू, प्रीति परस्पर होई।
तूं मोहि देखै, तोहि न देखू, यह मति सब बुधि खोई ।
सब घट अंतर रमसि निरंतर, मैं देखन नहिं जाना।
गुन सब तोर, मोर सब औगुन, कृत उपकार न माना।।
मैं, तैं, तोरि-मोरि असमझि सौं, कैसे करि निस्तारा।
कह रैदास' कृष्ण करुणामय ! जै जै जगत-अधारा ।।
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