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विद्वानों का यह कथन बहुत ठीक है कि विनम्रता के बिना स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं। इस
बात को सब लोग मानते हैं कि आमसंस्कार के लिए थोड़ी-बहुत मानसिक स्वतंत्रता
परमावश्यक है चाहे उस स्वतंत्रता में अभिमान और नम्रता दोनों का मेल हो और चाहे वह
नमता ही से उत्पन्न हो। यह बात तो निश्चित है कि जो मनुष्य मर्यादापूर्वक जीवन व्यतीत
करना चाहता है, उसके लिए वह गुण अनिवार्य है, जिससे आत्मनिर्भरता आती है और जिससे
अपने पैरों के बल खड़ा होना आता है। युवा को यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि वह बहुत
कम बातें जानता है, अपने ही आदर्श से वह बहुत नीचे है और उसकी आकांक्षाएँ उसकी
योग्यता से कही बढ़ी हुई है। उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने बड़ों का
सम्मान करे, छोटो और बराबर वालों से कोमलता का व्यवहार करें, ये बातें आत्ममर्यादा के
लिए आवश्यक हैं। यह सारा संसार, जो कुछ हम हैं और जो कुछ हमारा है-हमारा शरीर, हमारी
आत्मा, हमारे भोग, हमारे घर और बाहर की दशा, हमारे बहुत से अवगुण और थोड़े गुण सब
इसी बात की आवश्यकता प्रकट करते है कि हमें अपनी आत्मा को नम रखना चाहिए।नमता
से मेरा अभिप्राय दब्बूपन से नहीं है, जिसके कारण मनुष्य दूसरों का मुंह ताकता है जिससे
उसका संकल्प क्षीण और उसकी प्रज्ञा मंद हो जाती है। जिसके कारण वह आगे बढ़ने के समय
भी पीछे रहता है और अवसर पड़ने पर चटपट किसी बात का निर्णय नहीं कर सकता। मनुष्य
का बेड़ा उसके अपने ही हाथ में है, उसे वह चाहे जिधर ले जाए। सच्ची आत्मा वही हैं, जो
प्रत्येक दशा में, प्रत्येक स्थिति के बीच अपनी राह आप निकालती हैं। )- गद्यांश का
सर्वाधिक उपयुक्त शीर्षक होगा ? '
मर्यादापर्वक जीतन
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maryada me rehna jeevan he
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