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सोभा-सिंधु न अंत रही री।
नंद-भवन भरि परि उमाँग चलि, ब्रज की बीथिनि फिरति बही री॥
देखी जाइ आजु गोकुल मैं, घर-घर बेंचति फिरति दधि री।
कहँ लगि कहाँ बनाइ बहुत बिधि, कहत न मुख सहसहुँ निबही री॥
जसुमति-उदर-अगाध-उदधि , उपजी ऐसी सबनि कहीरी।
सूर स्याम प्रभु इंद्र-नीलमनि, ब्रज-बनिता उर लाइ गही री॥1॥
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Humne isme kya krna hai
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