World Languages, asked by sahilkumarbharti78, 9 months ago

1.सत्संगति किं न करोति-
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Answered by Yashicaruthvik
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Answer:"सत्सङ्गति कथय किं न करोति पुंसाम्।" - यह एक प्राचीन उक्ति जो आज अधिक प्रासंगिक है। महाकवि भर्तृहरि ने कभी कहा था -

जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं,

मानोन्नति दिशति पापमपाकरोति    ।

चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं,

सत्सङ्गति कथय किं न करोति पुंसाम्।।

 

सज्जनों की संगति से व्यक्ति का केवल उपकार ही होता है, इसी कथ्य को कवि ने बड़ी सुन्दरता से इस श्लोक में बताया है। सत्संगति से बुद्धि की जड़ता और अज्ञानता दूर होती है, सज्जनों के साथ रहने से वाणी सदैव सत्य भाषण ही करती है। इसी से समाज में उसे सम्मान एवं प्रतिष्ठा प्राप्त होती है और उसके कारण वह उन्नति करता है।  

यह तर्क पद्धति के द्वारा सत्संगति की सुन्दर व्याख्या है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि यदि मनुष्य सज्जन व्यक्ति के साथ रहता है, उसके साथ उठता-बैठता है तो उसके गुण-व्यवहार भी सीखता है। इससे स्पष्ट है कि वह किसी भी प्रकार की अनीति एवं पापकर्म से भी दूर रहता है। अनुचित कार्य न करने एवं उचित एवं अच्छे कार्य करने से उसे जो प्रशंसा मिलती है, उससे वह प्रसन्न रहता है और उसके कार्यों की प्रशंसा से उसका यश चारों दिशाओं में फैलता है।

आज इस युग में जहाँ मानव के पास भटकावे के अनेक साधन हैं और उसके पास इतना समय नहीं कि वह विचार कर सके कि क्या उचित है अथवा अनुचित, तब यह उक्ति और भी सार्थक बन जाती है।  

वैसे तो सज्जन के बारे में अनेक बातें हैं किन्तु कुछ गुणों की बात आपसे साझा करता हूँ जो शास्त्रों में कहा गया है। एक श्लोक है -

वांछा सज्जनसङ्गे परगुणे प्रीतिर्गुरौ नम्रता,

विद्यायां व्यसनं स्वयोषिति रतिर्लोकापवादाद् भयम्।

भक्तिः शूलिनि शक्तिरात्मदमने संसर्गमुक्तिः खले,

एते येषु वसन्ति निर्मलगुणास्तेभ्यो नरेभ्यो नमः।।

सज्जनों से संगति की इच्छा, दूसरों के गुणों से प्रेम, बड़ों के प्रति नम्रता, विद्या में आसक्ति, अपनी पत्नी में प्रेम, लोक-निदा से भय, ईश्वर के प्रति भक्ति, आत्मसंयम में सामर्थ्य, दुर्जन संगति का त्याग, ऐसे गुण जिनमें होते हैं उन्हें नमस्कार है। तात्पर्य यह कि वे ही सज्जन जाने गए हैं। इसके अलावा भी अनेक गुण कहे गए हैं, जैसे - विपत्ति में धैर्य, उन्नति में क्षमा, सभा में वाणी की निपुणता, युद्ध में पराक्रम, शास्त्रों में रुचि, मुख में सत्यवाणी, दान का स्वभाव, हृदय में स्वस्थ आचरण, लोभ न करना, सभी प्राणियों पर दया आदि अनेक गुण हैं जो सज्जन की परिभाषा बताते हैं।

अब प्रश्न उठता है कि सज्जन ये हैं तो दुर्जन कौन हैं? तो दुर्जन के संदर्भ में भी अनेक बातें हैं और सबसे सरल तो यह है कि जो सज्जन के गुण हैं उनके विपरीत गुण रखने वाले ही दुर्जन कहे गए हैं, फिर भी उनके बारे में भी अनेक बातें शास्त्रों में कहे गए हैं, जैसे यह श्लोक है -

जाड्यं ह्रीमति गण्यते व्रतरुचौ दम्भः शुचौ केतवं,

शूरे निर्घृणता मुनौ विमतिता दैन्यं प्रियलापिनि।

तेजस्विन्यवलिप्तता मुखरता वक्तर्यशक्तिः स्थिरे,

तत्को नाम गुणो भवेत्स गुणिनां यो दुर्जनैर्नाङ्कितः।।

अर्थात् दुर्जनों का वह स्वभाव होता है कि वे सज्जनों के गुणों को भी अवगुण के रूप में देखते हैं। लज्जा में मूर्खता, व्रत की रुचि में पाखंड, पवित्रता में धूर्तता, शौर्य में निर्दयता, चुप रहने में बुद्धिहीनता, प्रिय बोलने में दीनता, तेजस्विता में अभिमान, वर्क्तृत्व में वाचालता, शांति में निर्बलता समझते हैं। साथ ही अकारण झगड़ा, दूसरी स्त्री में इच्छा, सहनशीलता का अभाव, चुगलखोरी करना, लोभ करना, मन में खोट रखना, दूसरे की बुराई करना, धन की लालसा करना आदि दुर्जन के गुण कहे गए हैं।

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विश्वजीत ‘सपन’

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