1)श्रम की प्रतिष्ठा
_अपने समाज में किस की प्रतिष्ठा नहीं है?
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रैदास का जीवन और काव्य इस तरह घुला-मिला है, जैसे चंदन और पानी मिल जाता है। प्रभुजी तुम चंदन हम पानी गाने वाले रैदास का व्यक्तित्व भले ही कबीर की तुलना में विनम्र व साधु लगता हो, पर वैचारिक दृढ़ता में सिर्फ रैदास ही हैं, जो कबीर से होड़ लेते हैं। रैदास अपनी साधना में मन के चंगा होने की बात करते हैं। यदि मन पवित्र है, तो सामने की कठवत का पानी गंगा की तरह पवित्र है। रैदास जिस समय और समाज में हुए थे, उसमें मनुष्य के श्रम को अवमानित किया जाता था। जो जितना ही उपयोगी श्रम करता, वह सामाजिक ढांचे में उतना ही हीन माना जाता था। साढ़े छह दशक के लोकतंत्र ने भी इस धारणा में कोई खास रद्दोबदल नहीं किया है। रैदास ने अपनी मानसिक और वैचारिक दृढ़ता से श्रम को प्रतिष्ठा दी- जहं जहं डोलउ सोई परिकरमा जो कुछ करौं सो पूजा।
वह अपने भक्तों को श्रम करके अपना पालन-पोषण करने का संदेश देते हैं। हमारे समाज में अकर्मण्य साधुता का प्रचलन रहा है, इसके बरक्स रैदास श्रमशील साधुता का आह्वान करते हैं। वह कहते हैं कि ईश्वर किसी के बाप का नहीं है, वह हर उस व्यक्ति का है, जो अपने कर्ममय जीवन के भीतर उसे मन-प्राण से चाहता है। उनका साहित्य-वर्ण आधारित श्रेष्ठताक्रम को चुनौती देता है। वर्ण व्यवस्था सामाजिक श्रम के अपहरण का एक रूप है, इसलिए श्रम की सामजिक प्रतिष्ठा का जो संदेश रैदास की कविता और जीवन से मिलता है, वह आज भी हमारे समाज की परम कामना है।