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न्यायिक प्रक्रिया का एक आवश्यक तत्व यह है कि प्रशासनिक प्राधिकारी को न्यायिक कल्प के मामलों में कार्य करते
हुए निष्पक्ष, ऋतु तथा पक्षपात से परे होना चाहिए। न्यायिक सदाचार के नियमों में यह बहुत पहले निश्चित किया
गया था कि पीठासीन अधिकारी को किसी भी प्रतिकूल प्रभाव से मुक्त होना चाहिए। जहां उस व्यक्ति के आचरण
से, जो न्यायिक कल्प कार्यों का निर्वहन करता है, यह प्रतीत होता है कि वह हितबद्ध है या वह हितबद्ध होता
दिखाई देता है। वह इस हैसियत से कार्य करने के अयोग्य होगा। कोई भी न्यायाधिकरण स्वयं अपने मामलों में
निर्णायक नहीं हो सकता और उस व्यक्ति को जो दूसरे के विषय में निणय देने के लिए बैठता है पक्षपात से मुक्त
होना चाहिए तथा उसमें विवाद के प्रश्न पर निष्पक्ष तथा वस्तुनिष्ठ मस्तिष्क से विचार करने की क्षमता होना चाहिए।
रतन लाल शर्मा बनाम मैनेजिंग कमेटी, डॉ. हरी राय हायर सेकेण्डरी स्कूल के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह
संप्रेक्षित किया कि नैसर्गिक न्याय का यह एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है कि कोई व्यक्ति अपने मामले में स्वयं निर्णायक
नहीं हो सकता।
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Explanation:
An essential element of the judicial process is that the administrative authority has to act in matters of judicial purport.
It should be fair, seasonal and free from partiality. This was fixed long ago in the rules of judicial ethics.
It was held that the Presiding Officer should be free from any adverse effect. where that person's conduct
from whom it appears that he is or would have been interested in the discharge of the judicial functions.
He would be unfit to act in this capacity. any tribunal in its own
cannot be decisive and free from bias to the person who sits to adjudicate the other
and should have the ability to consider the question of dispute with an impartial and objective mind.
in Ratan Lal Sharma Vs. Managing Committee, Dr. Hari Rai Higher Secondary School, the Supreme Court held this
Observed that it is an important principle of natural justice that a person cannot be the judge of his own case.