10 line on Swami Dayanand in about Sanskrit
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आर्य-समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद का जन्म उस समय हुआ जब सारा देश घोर अंधकार में डूबा हुआ था। समाज में बहुत-सी कुरीतियों से व्याप्त थीं और देश गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। उनका जन्म सन् 1824 में गुजरात राज्य के भौरवी क्षेत्र के टंकारा गाँव में हुआ था। उनका बाल्यकाल का नाम मूलशंकर था। आपके पिता शिव के भक्त थे और संस्कृत के विद्वान थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत में हुई थी।
बारह वर्ष की आयु में पिता के आदेश से उन्होंने दिन में शिवरात्रि का उपवास रखा और सारी रात जागकर बिताई। रात में चूहे को शिवलिंग पर चढ़ाए गए प्रसाद को खाते देख सोचने लगे जो शिव एक चूहे से स्वयं की रक्षा नहीं कर सकता वह हमारी रक्षा क्या करेगा। मन में जिज्ञासा जागी सच्चा शिव कौन है। इसी समय परिवार में दो घटनाएँ और घटीं जिन्होंने मूलशंकर के निर्मल मन को झकझोर दिया। एक बहिन की मृत्यु और दूसरी चाचा की मृत्यु। मूलशंकर कोने में खड़ा सोचने लगा। यह मृत्यु क्या है ? क्या इससे पार पाया जा सकता है ? बस इसी जिज्ञासा को शांत करने के लिए मूलशंकर ने घर-बार छोड़ दिया और सच्चे शिव की खोज में निकल पड़े। इक्कीस वर्ष की आयु में उन्होंने संन्यास लिया और मूलशंकर दयानंद बन गए।
योग-साधना से सच्चे शिव की प्राप्ति के प्रयास में लग गए। इसी खोज में तीर्थ स्थलों पर जा-जाकर योगियों संन्यासियों के संपर्क में आए। अंततः 35 वर्ष की आयु में व्याकरण के प्रकांड विद्वान् दंडी स्वामी विरजानंद जी के पास मथुरा पहुँचे। स्वामीजी ने तीन वर्षों तक दंडी स्वामी विरजानंद जी से शिक्षा ग्रहण की। गुरूदक्षिणा का समय आया तो आप गुरूजी के पास लौंग लेकर पहुँचे। गुरू जी ने लौंग लेने से मना कर दिया और कहा हे दयानंद मुझे तुमसे गुरूदक्षिणा में ये लौंग नहीं चाहिए। साथ ही आदेश दिया दयानंद जाओ भारतवर्ष में जो अज्ञान पैला हुआ है उसे दूर करो। दयानंद ने गुरूजी को वचन दिया और पूरी तरह से इस कार्य में जुट गए। हरिद्वार में पाखंड-खंटिनी पताका फहरा दी। वेदों का संग्रहित किया और वेंदों की मूल भावनाओं को स्पष्ट कर उनका प्रचार व प्रसार किया। आर्य समाज की स्थापना की। सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, व्यवहार भानु गोकरूणा निधि आदि मुख्य पुस्तकें लिखीं।
वेदों के प्रचार-प्रसार के दौरान अनेकों बार विरोधियों द्वारा कुल सत्रह बार विष दिया गया। अंततः जगन्नाथ रसोइए द्वारा दूध में काँच घोलकर पिलाया गया। दूध पीने के बाद जब उनकी हालत बिगड़ी तो वे सारा कुचक्र जान गए। उन्होंने रसोइए को पकड़ लिया लेकिन जीवनदान देते हुए रसोइए जगन्नाथ को पैसे दे कर कहा जा। भाग जा।
बारह वर्ष की आयु में पिता के आदेश से उन्होंने दिन में शिवरात्रि का उपवास रखा और सारी रात जागकर बिताई। रात में चूहे को शिवलिंग पर चढ़ाए गए प्रसाद को खाते देख सोचने लगे जो शिव एक चूहे से स्वयं की रक्षा नहीं कर सकता वह हमारी रक्षा क्या करेगा। मन में जिज्ञासा जागी सच्चा शिव कौन है। इसी समय परिवार में दो घटनाएँ और घटीं जिन्होंने मूलशंकर के निर्मल मन को झकझोर दिया। एक बहिन की मृत्यु और दूसरी चाचा की मृत्यु। मूलशंकर कोने में खड़ा सोचने लगा। यह मृत्यु क्या है ? क्या इससे पार पाया जा सकता है ? बस इसी जिज्ञासा को शांत करने के लिए मूलशंकर ने घर-बार छोड़ दिया और सच्चे शिव की खोज में निकल पड़े। इक्कीस वर्ष की आयु में उन्होंने संन्यास लिया और मूलशंकर दयानंद बन गए।
योग-साधना से सच्चे शिव की प्राप्ति के प्रयास में लग गए। इसी खोज में तीर्थ स्थलों पर जा-जाकर योगियों संन्यासियों के संपर्क में आए। अंततः 35 वर्ष की आयु में व्याकरण के प्रकांड विद्वान् दंडी स्वामी विरजानंद जी के पास मथुरा पहुँचे। स्वामीजी ने तीन वर्षों तक दंडी स्वामी विरजानंद जी से शिक्षा ग्रहण की। गुरूदक्षिणा का समय आया तो आप गुरूजी के पास लौंग लेकर पहुँचे। गुरू जी ने लौंग लेने से मना कर दिया और कहा हे दयानंद मुझे तुमसे गुरूदक्षिणा में ये लौंग नहीं चाहिए। साथ ही आदेश दिया दयानंद जाओ भारतवर्ष में जो अज्ञान पैला हुआ है उसे दूर करो। दयानंद ने गुरूजी को वचन दिया और पूरी तरह से इस कार्य में जुट गए। हरिद्वार में पाखंड-खंटिनी पताका फहरा दी। वेदों का संग्रहित किया और वेंदों की मूल भावनाओं को स्पष्ट कर उनका प्रचार व प्रसार किया। आर्य समाज की स्थापना की। सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, व्यवहार भानु गोकरूणा निधि आदि मुख्य पुस्तकें लिखीं।
वेदों के प्रचार-प्रसार के दौरान अनेकों बार विरोधियों द्वारा कुल सत्रह बार विष दिया गया। अंततः जगन्नाथ रसोइए द्वारा दूध में काँच घोलकर पिलाया गया। दूध पीने के बाद जब उनकी हालत बिगड़ी तो वे सारा कुचक्र जान गए। उन्होंने रसोइए को पकड़ लिया लेकिन जीवनदान देते हुए रसोइए जगन्नाथ को पैसे दे कर कहा जा। भाग जा।
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