10 points on importance of trees in sanskrit language
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यदि कोई आग, ऋण, या शत्रु अल्प मात्रा अथवा न्यूनतम सीमा तक भी अस्तित्व में बचा रहेगा तो बार बार बढ़ेगा ; अत: इन्हें थोड़ा सा भी बचा नही रहने देना चाहिए । इन तीनों को सम्पूर्ण रूप से समाप्त ही कर डालना चाहिए ।
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् |
मूढै: पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा प्रदीयते ||
पृथ्वी पर तीन ही रत्न हैं जल अन्न और अच्छे वचन । फिर भी मूर्ख पत्थर के टुकड़ों को रत्न कहते हैं ।
नाभिषेको न संस्कार: सिंहस्य क्रियते मृगैः |
विक्रमार्जितराज्यस्य स्वयमेव मृगेंद्रता ||
वन्य जीव शेर का राज्याभिषेक (पवित्र जल छिड़काव) तथा कतिपय कर्मकांड के संचालन के माध्यम से ताजपोशी नहीं करते किन्तु वह अपने कौशल से ही कार्यभार और राजत्व को सहजता व सरलता से धारण कर लेता है
चन्दनं शीतलं लोके चंदनादपि चंद्रमा: |
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगत: ||
समानी व: आकूति: समाना )दयानि व: |
समानम् अस्तु वो मन: यथा व: सुसहा असति ||
यथा व: सुसहा असति ||
ऋग्वेद
कर्तव्यम् आचरं कामम् अकर्तव्यम् अनाचरम् |
तिष्ठति प्राकॄताचारो य स: आर्य इति : ||
ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प; ज्ञख्8230; योग वसिष्ठ
परो अपि हितवान् बन्धु: ,बन्धु: अपि अहित: पर: |
अहित: देहज: व्याधि: , हितम् आरण्यम् औषधम् ||
हितोपदेश
परस्परविरोधे तु वयं पंचश्चते शतम् |
परैस्तु विग्रहे प्राप्ते वयं पंचाधिकं शतम् ||
ज्ञख्8211;युधिष्ठीर
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् |
मूढै: पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा प्रदीयते ||
पृथ्वी पर तीन ही रत्न हैं जल अन्न और अच्छे वचन । फिर भी मूर्ख पत्थर के टुकड़ों को रत्न कहते हैं ।
नाभिषेको न संस्कार: सिंहस्य क्रियते मृगैः |
विक्रमार्जितराज्यस्य स्वयमेव मृगेंद्रता ||
वन्य जीव शेर का राज्याभिषेक (पवित्र जल छिड़काव) तथा कतिपय कर्मकांड के संचालन के माध्यम से ताजपोशी नहीं करते किन्तु वह अपने कौशल से ही कार्यभार और राजत्व को सहजता व सरलता से धारण कर लेता है
चन्दनं शीतलं लोके चंदनादपि चंद्रमा: |
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगत: ||
समानी व: आकूति: समाना )दयानि व: |
समानम् अस्तु वो मन: यथा व: सुसहा असति ||
यथा व: सुसहा असति ||
ऋग्वेद
कर्तव्यम् आचरं कामम् अकर्तव्यम् अनाचरम् |
तिष्ठति प्राकॄताचारो य स: आर्य इति : ||
ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प;ज्ञन्ब्स्प; ज्ञख्8230; योग वसिष्ठ
परो अपि हितवान् बन्धु: ,बन्धु: अपि अहित: पर: |
अहित: देहज: व्याधि: , हितम् आरण्यम् औषधम् ||
हितोपदेश
परस्परविरोधे तु वयं पंचश्चते शतम् |
परैस्तु विग्रहे प्राप्ते वयं पंचाधिकं शतम् ||
ज्ञख्8211;युधिष्ठीर
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