1024 निम्नलिखित पद्यांश की सन्दर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए
कबीर संगति साधु की, जो करि जाने कोय।
सकल बिरछ चन्दन भये, बाँस न चन्दन होय।।
कबीर कुसंग न कीजिये, पाथर जल न तिराय।
कदली सीप भुजंग मुख, एक बूंद तिर भाय।।
Answers
कबीर संगति साधु की, जो करि जाने कोय।
सकल बिरछ चन्दन भये, बाँस न चन्दन होय।।
कबीर कुसंग न कीजिये, पाथर जल न तिराय।
कदली सीप भुजंग मुख, एक बूंद तिर भाय।।
संदर्भ : उपरोक्त साखी कबीर दास द्वारा रचित ‘अमृतवाणी’ नामक ग्रंथ से ली गई है। इस साखी के माध्यम से कबीर ने सत्संग की महिमा और कुसंगति के अवगुणों का वर्णन किया है।
अर्थ : कबीर कहते हैं, जो व्यक्ति सत्संग के महत्व को समझता हैस वही उसका लाभ उठा पाता है। जिस तरह वन में चंदन के पेड़ की सुगंध से आस-पास के पेड़ भी सुगंधित होकर चंदन जैसा महत्व प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन बांस अपने स्वभाव के कारण उसकी सुगंध ग्रहण नहीं पाता और सूखा ही बना रहता है, उसी तरह जो सही पात्र होते हैं, वह संतों के गुणों को सहज ग्रहण कर लेते हैं और उसके आसपास रहते हैं, लेकिन जो लोग दुर्जन होते हैं साधु-संतों से द्वेष करते हैं। वे साधु के संतो के गुणों को ग्रहण नहीं कर पाते, और अवगुणी ही बने रहते हैं।
कबीरदास कहते हैं कि कभी कुसंगति में ना पड़ो, कुसंगति से सदैव बचना चाहिए। कुसंगति उस पत्थर के समान है जो स्वयं तो पानी में डूबता ही है और उस पर बैठने वाले को भी डुबो देता है। बिल्कुल उसी तरह जिस तरह स्वाति नक्षत्र की बूंद यदि केले के ऊपर करती है तो कपूर बन जाती है, सीपी के मुँह में गिरती है, तो मोती बन जाती है और साँप के मुंह में गिरने पर विष बन जाती है। इसी तरह कुसंगति में पढ़कर अच्छा व्यक्ति भी बुरा बन सकता है।
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कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥
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हस्ती चढ़िये ज्ञान कौ सहज दुलीचा डारी
स्वान रूप संसार है भूंकन दे झख मारि।
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