14. तुलसीदास की समन्वय भावना को स्पष्ट कीजिए
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समन्वय भारतीय संस्कृति की महत्वपूर्ण विशेषता है, समय-समय पर इस देश में कितनी ही संस्कृतियों का आगमन और आविर्भाव हुआ। परन्तु वे घुल मिलकर एक हो गई। समन्वय को आधार बनाने वाले लोकनायक तुलसी ने अपने समय की जनता के हृदय की धड़कन को पहचाना और 'रामचरितमानस' के रूप में समन्वय का अद्भुत आदर्श प्रस्तुत किया। तुलसी सही अर्थों में सच्चे सूक्ष्मद्रष्टा थे और उन्होंने बाल्यकाल से ही जीवन की विषम स्थितियों को देखा और भोगा था इसलिये वह व्यक्तिगत स्तर पर वैषम्य की पीड़ा से भली-भाँति परिचित थे। उनकी अन्तर्भेदी दृष्टि समाज, राजनीति, धर्म, दर्शन, सम्प्रदाय और यहाँ तक कि साहित्य में व्याप्त वैषम्य, असामनता, अलगाव, विछिन्नता, द्वेष और स्वार्थपरता की जड़ो को गहराई से नाप चुकी थी और उनके भीतर छिपी एक सर्जक की संवेदनशीलता यह भाँप चुकी थी कि वैषम्य और विछिन्नता के उस युग में लोकमंगल केवल सामंजस्य और समन्वय के लेप से ही संभव था। समन्वय से ही उन गहरी खाइयो को पाटा जा सकता था जो मनुष्य को मनुष्य से अलग, तुच्छ और अस्पृश्य बना रही थी। समन्वय से ही राजनीति को समदर्शी और शासन को लोक कल्याणकारी बनाया जा सकता था। फलतः तुलसी राम-भक्ति की नौका के सहारे समन्वय का संदेश देने निकल पड़े। लेकिन उनके संबंध में यह ध्यान रहे कि वह समन्वय के कवि है, समझौते के नहीं। 'डॉ. दुर्गाप्रसाद' भी यही मानते है
"तुलसी ने एक हद तक समन्वय का मार्ग अपनाया है, लेकिन 'समन्वय'का ही 'समझौते' का नहीं। उन्हें जहाँ कहीं और जिस किसी भी रूप में लोक-जीवन का अमंगल करने वाली प्रवृति दिखाई दी है, उसका उन्होंने डटकर विरोध भी किया है, वहाँ वह थोड़ा भी नही चूके है।"
उनके काव्य में जहाँ एक ओर भाषा का साहित्यिक सौंदर्य दृष्टिगत होता है, वही दूसरी ओर जनभाषा का भी अत्यंत सरस रूप दिखाई देता है। तुलसु पूर्णतया समन्वयवादी थे इसलिये उन्होंने अपने समय की तथा पूर्व प्रचलित सभज काव्य पद्घतियों को राममय करने का सफल प्रयास किया। सूफियों की दोहा-चौपाई पद्धति, चन्द के छप्पय और तोमर आदि, कबीर के दोहे और पद, रहीम के बरवै, गंग आदि की कवित्त-सवैया पद्धति एवं मंगल काव्यों की पद्धति को ही नही, वरन् जनता में प्रचलित सोहर, नरछू, गीत आदि तक को उन्होंने रामकाव्यमय कर दिया। इस प्रकार उन्होंने काव्य की प्रबंध एवं मुक्तक दोनो शैलियों को अपनाया। उन्होंने तत्कालीन कृष्णकाव्य की ब्रजभाषा और प्रेमकाव्यो की अवधी भाषा दोनो का प्रयोग करके समन्वयवादी दृष्टिकोण का परिचय दिया है।
निष्कर्षतः तुलसी ने तत्कालीन संस्कृतियों, जातियों, धर्मावलंबियों के बीच समन्वय स्थापित करके दिशाहीन समाज को नई दिशा प्रदान की। समन्वय का यह भाव उनकी अनुभूति एवं अभिव्यक्ति में भी झलकता है कवि की भाषा की सहजता, सरलता और उत्कट सम्प्रेषणीयता मानवमूल्यों को जोड़ती है। तुलसी के काव्य में संस्कृत, अवधी, ब्रजभाषा आदि भाषाओ का सुंदर सामंजस्य मिलता है। लोक ब्रह्म तुलसी ने भारतीय जनता की नस-नस को पहचान कर ही 'रामचरितमानस' के द्वारा समन्वयवाद का अद्भुत आदर्श प्रस्तुत किया। वैसे तो हमारी भारतीय संस्कृति में सब्र और समन्वय का भाव पहले भी था और आज भी है किन्तु आज भोग की प्रवृति प्रधान हो रही है। सामाजिक व्यवस्था के तार भी छिन्न-भिन्न हो रहे है। विश्वस्तर पर आतंकवाद चुनौती बन चुका है। इस प्रकार की विषम परिस्थिति में तुलसी की लोकपरक दृष्टि एवं समन्वयवादी विचारधारा ही मानवजाति को मानसिक एवं आत्मिक शन्ति प्रदान कर सकती है।
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