15.हमारे देश के लिए मानसूनी पवने का क्या महत्व है
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भारत की जलवायु के बारे में कहा गया है कि भारत में केवल तीन ही मौसम होते हैं, मानसून पूर्व के महीने, मानसून के महीने और मानसून के बाद के महीने। यद्यपि यह भारतीय जलवायु पर एक हास्योक्ति है, फिर भी भारत की जलवायु के मानसून पर पूर्णतः निर्भर होने को यह अच्छी तरह व्यक्त करता है।
मानसून अरबी भाषा का शब्द है। अरब सागर में बहने वाली मौसमी हवाओं के लिए अरब मल्लाह इस शब्द का प्रयोग करते थे। उन्होंने देखा कि ये हवाएं जून से सितंबर के गरमी के दिनों में दक्षिण-पश्चिम दिशा से और नवंबर से मार्च के सर्दी के दिनों में उत्तर-पूर्वी दिशा से बहती हैं।
एशिया और यूरोप का विशाल भूभाग, जिसका एक हिस्सा भारत भी है, ग्रीष्मकाल में गरम होने लगता है। इसके कारण उसके ऊपर की हवा गरम होकर उठने और बाहर की ओर बहने लगती है। पीछे रह जाता है कम वायुदाब वाला एक विशाल प्रदेश। यह प्रदेश अधिक वायुदाब वाले प्रदेशों से वायु को आकर्षित करता है। अधिक वायुदाब वाला एक बहुत बड़ा प्रदेश भारत को घेरने वाले महासागरों के ऊपर मौजूद रहता है क्योंकि सागर स्थल भागों जितना गरम नहीं होता है और इसिलए उसके ऊपर वायु का घनत्व अधिक रहता है। उच्च वायुदाब वाले सागर से हवा मानसून पवनों के रूप में जमीन की ओर बह चलती है। सागरों से निरंतर वाष्पीकरण होते रहने के करण यह हवा नमी से लदी हुई होती है। यही नमी भरी हवा ग्रीष्मकाल का दक्षिण-पश्चिमी मानसून कहलाती है।
भारतीय प्रायद्वीप की नोक, यानी कन्याकुमारी पर पहुंचकर यह हवा दो धाराओं में बंट जाती है। एक धारा अरब सागर की ओर बह चलती है और एक बंगाल की खाड़ी की ओर। अरब सागर से आनेवाले मानसूनी पवन पश्चिमी घाट के ऊपर से बहकर दक्षिणी पठार की ओर बढ़ते हैं। बंगाल की खाड़ी से चलनेवाले पवन बंगाल से होकर भारतीय उपमहाद्वीप में घुसते हैं।ये पवन अपने मार्ग में पड़ने वाले प्रदेशों में वर्षा गिराते हुए आगे बढ़ते हैं और अंत में हिमालय पर्वत पहुंचते हैं। इस गगनचुंभी, कुदरती दीवार पर विजय पाने की उनकी हर कोशिश नाकाम रहती है और विवश होकर उन्हें ऊपर उठना पड़ता है। इससे उनमें मौजूद नमी घनीभूत होकर पूरे उत्तर भारत में मूसलाधार वर्षा के रूप में गिर पड़ती है। जो हवा हिमालय को लांघ कर युरेशियाई भूभाग की ओर बढ़ती है, वह बिलकुल शुष्क होती है।
दक्षिण-पश्चिमी मानसून भारत के ठेठ दक्षिणी भाग में जून 1 को पहुंचता है। साधारणतः मानसून केरल के तटों पर जून महीने के प्रथम पांच दिनों में प्रकट होता है। यहां से वह उत्तर की ओर बढ़ता है और भारत के अधिकांश हिस्सों पर जून के अंत तक पूरी तरह छा जाता है।
अरब सागर से आने वाले पवन उत्तर की ओर बढ़ते हुए 10 जून तक बंबई पहुंच जाते हैं। इस प्रकार तिरुवनंतपुरम से बंबई तक का सफर वे दस दिन में बड़ी तेजी से पूरा करते हैं। इस बीच बंगाल की खाड़ी के ऊपर से बहने वाले पवनों की प्रगति भी कुछ कम आश्चर्यजनक नहीं होती । ये पवन उत्तर की ओर बढ़कर बंगाल की खाड़ी के मध्य भाग से दाखिल होते हैं और बड़ी तेजी से जून के प्रथम सप्ताह तक असम में फैल जाते हैं। हिमालय रूपी विघ्न की दक्षिणी छोर को प्राप्त करके यह धारा पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। इस कारण उसकी आगे की प्रगति बर्मा की ओर न होकर गंगा के मैदानों की ओर होती है।
मानसून कलकत्ता शहर में बंबई से कुछ दिन पहले पहुंच जाता है, साधारणतः जून 7 को। मध्य जून तक अरब सागर से बहनेवाली हवाएं सौराष्ट्र, कच्छ व मध्य भारत के प्रदेशों में फैल जाती हैं।
इसके पश्चात बंगाल की खाड़ी वाले पवन और अरब सागर वाले पवन पुनः एक धारा में सम्मिलित हो जाते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, पूर्वी राजस्थान आदि बचे हुए प्रदेश जुलाई 1 तक बारिश की पहली बौछार अनुभव करते हैं।
उपमहाद्वीप के काफी भीतर स्थित दिल्ली जैसे किसी स्थान पर मानसून का आगमन कुतूहल पैदा करने वाला विषय होता है। कभी-कभी दिल्ली की पहली बौछार पूर्वी दिशा से आती है और बंगाल की खाड़ी के ऊपर से बहनेवाली धारा का अंग होती है। परंतु कई बार दिल्ली में यह पहली बौछार अरब सागर के ऊपर से बहनेवाली धारा का अंग बनकर दक्षिण दिशा से आती है। मौसमशास्त्रियों को यह निश्चय करना कठिन होता है कि दिल्ली की ओर इस दौड़ में मानसून की कौन सी धारा विजयी होगी।
मध्य जुलाई तक मानसून कश्मीर और देश के अन्य बचे हुए भागों में भी फैल जाता है, परंतु एक शिथिल धारा के रूप में ही क्योंकि तब तक उसकी सारी शक्ति और नमी चुक गई होती है।
सर्दी में जब स्थल भाग अधिक जल्दी ठंडे हो जाते हैं, प्रबल, शुष्क हवाएं उत्तर-पूर्वी मानसून बनकर बहती हैं। इनकी दिशा गरमी के दिनों की मानसूनी हवाओं की दिशा से विपरीत होती है। उत्तर-पूर्वी मानसून भारत के स्थल और जल भागों में जनवरी की शुरुआत तक, जब एशियाई भूभाग का तापमान न्यूनतम होता है, पूर्ण रूप से छा जाता है। इस समय उच्च दाब की एक पट्टी पश्चिम में भूमध्यसागर और मध्य एशिया से लेकर उत्तर-पूर्वी चीन तक के भू-भाग में फैली होती है। बादलहीन आकाश, बढ़िया मौसम, आर्द्रता की कमी और हल्की उत्तरी हवाएं इस अवधि में भारत के मौसम की विशेषताएं होती हैं। उत्तर-पूर्वी मानसून के कारण जो वर्षा होती है, वह परिमाण में तो न्यून, परंतु सर्दी की फसलों के लिए बहुत लाभकारी होती है।
उत्तर-पूर्वी मानसून तमिलनाडु में विस्तृत वर्षा गिराता है। सच तो यह है कि तमिलनाडु का मुख्य वर्षाकाल उत्तर-पूर्वी मानसून के समय ही होता है। यह इसलिए कि पश्चिमी घाट की पर्वत श्रेणियों की आड़ में आ जाने के कारण उत्तर-पश्चिमी मानसून से उसे अधिक वर्षा नहीं मिल पाती। नवंबर और दिसंबर के महीनों में तमिलनाडु अपनी संपूर्ण वर्षा का मुख्य अंश प्राप्त करता है।