18. 'भ्रा
19. भूष
20. 'खे
(IYA
21. गोर
म
22. रेति
23. सम
है (V)
11. निम्नलिखिति अपठित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए-
(उत्तर सीमा 10 शब्द)
वास्तव में मनुष्य स्वंय को देख नहीं पाता उसके नेत्र दूसरों के चरित्र को देखते हैं, उसका हृदय
दूसरों के दोषों को अनुभव करता है। उसकी वाणी दूसरों के अवगुणों का विश्लेषण कर सकती.
है, किन्तु उसका अपना चरित्र, उसके अपने दोष एवम् उसके अवगुण, मिथ्याभिमान और
आत्म गौरव के काले आवरण में इस प्रकार प्रच्छन्न रहते हैं कि जीवन पर्यन्त उसे दृष्टि गोचर
ही नहीं हो पाते) इसलिए मनुष्य स्वयं को सर्वगुण संपन्न देवता समझ बैठता है। व्यक्ति स्वयं
के द्वारा जितना छला जाता है उतना किसी अन्य के द्वारा नहीं। आत्मविश्लेषण कोई सहज
कार्य नहीं है। इसके लिये उदारता, सहनशीलता एवम् महानता की आवश्यकता होती है।
इसका तात्पर्य यह नहीं है कि आत्म विश्लेषण मनुष्य कर ही नहीं सकता। अपने गुणों-
अवगुणों की अनुभूति मनुष्य को सदैव रहती है (अपने दोषों से वह हर पल अवगत रहता है ।।
किन्तु अपने दोषों को मानने के लिए तैयार न रहना ही उसकी दुर्बलता होती है और यही उसे
आत्म-विश्लेषण की क्षमता नहीं दे पाती उसमें इतनी उदारता और हृदय की विशालता ही
नहीं होती कि वह अपने दोषों को स्वयं देकर ठीक कर सके इसके विपरीत पर निंदा एवम्
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पर दोष दर्शन में अपना कुछ नहीं बिगड़ना उल्टे मनुष्य आनन्द अनुभव करता है। परन्तु
आत्म-विश्लेषण करके अपने दोष देखने से मनुष्य के अंहकार को चोट पहुँचती है।
(i) 'वास्तव में मनुष्य स्वयं को देख नहीं पाता' इस वाक्य का आशय स्पष्ट कीजिये।।
(ii) मनुष्य द्वारा दूसरो के अवगुण देखने तथा अपने अवगुणों को न देख पाने के पीछे
क्या कारण है?
(iii) मनुष्य को अपने बारे में क्या भ्रम हो जाता है?
(iv) मनुष्य किसके द्वारा छला जाता है तथा क्यों?
(v) मनुष्य अपने दोषों को क्यों नहीं मान पाता है?
(vi) मनुष्य को पर निंदा व दोष दर्शन में आनन्द का अनुभव क्यों होता है?
(vii) मनुष्य अपने आपको सर्वगुण सम्पन्न देवता क्यों समझ बैठता है?
इंटरनेट एक विशाल और विपतत्यागी
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Answers
दिए गए गद्यांश पर आधारित प्रश्नों के उत्तर इस प्रकार हैं...
(i) 'वास्तव में मनुष्य स्वयं को देख नहीं पाता' इस वाक्य का आशय स्पष्ट कीजिये।
➲ वास्तव में मनुष्य स्वयं को नहीं देख पाता इस वाक्य का आशय यह है कि मनुष्य अपने अंदर के दोष को नहीं देख पाता और उसकी आँखें केवल दूसरों के दोष और उनके चरित्र को ही देखती रहती हैं। उसे केवल दूसरों में ही दोष नजर आते हैं, स्वयं में नही।
(ii) मनुष्य द्वारा दूसरो के अवगुण देखने तथा अपने अवगुणों को न देख पाने के पीछे क्या कारण है?
➲ मनुष्य द्वारा दूसरों के अवगुण देखने तथा अपने अवगुणों को ना देख पाने के पीछे सबसे बड़ी वजह यह है कि उसका मन दुर्बल होता है और यह दुर्बलता उसे आत्मविश्लेषण की क्षमता नहीं दे पाती, जिसके कारण वह अपने दोषों को स्वीकार नहीं कर पाता और उसमें सदैव दूसरों में ही दोष दिखाई देते हैं।
(iii) मनुष्य को अपने बारे में क्या भ्रम हो जाता है?
➲ मनुष्य को अपने बारे में भ्रम हो जाता है, कि उसमे कोई दोष नही है।
(iv) मनुष्य किसके द्वारा छला जाता है तथा क्यों?
➲ मनुष्य स्वयं के द्वारा छला जाता है, क्योंकि वह स्वयं के दोषों को समझ नही पाता।
(v) मनुष्य अपने दोषों को क्यों नहीं मान पाता है?
➲ मनुष्य अपने अंदर के दोषों को इसलिए नहीं मान पाता क्योंकि उसके मन की दुर्बलता उसे अपने अंदर के दोषों को स्वीकार करने की क्षमता नहीं प्रदान करती।
(vi) मनुष्य को पर निंदा व दोष दर्शन में आनन्द का अनुभव क्यों होता है?
➲ मनुष्य को परनिंदा व दोष दर्शन में आनंद का अनुभव इसलिए होता है, क्योंकि वह अपने दोषों को मानने के लिए तैयार नहीं रहता, यह उसकी मन की दुर्बलता होती है। इस कारण उसे दूसरों के निंदा व दोष-दर्शन में आनंद का अनुभव होता है।
(vii) मनुष्य अपने आपको सर्वगुण सम्पन्न देवता क्यों समझ बैठता है?
➲ मनुष्य अपने आपको सर्वगुण संपन्न देवता इसलिए समझ बैठता है, क्योंकि उसके अंदर आत्म विश्लेषण की क्षमता विकसित नहीं हो पाती जो उसके हृदय को इतना उदार और विशाल बना दे कि वह अपने दोस्तों को पहचान सके और उन्हें दूर कर सकें।
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