History, asked by djbarwo3851, 6 months ago

18 सो 58 से 1919 ईस्वी के मध्य शिक्षा के विकास का वर्णन कीजिए

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Answered by Adney
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maikale baba ki kripaa aajtak kayam hai

Answered by ranurai58
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Answer:

1857 में कलकत्ता, बंबई तथा मद्रास में विश्वविद्यालय खोले गये तथा बाद में सभी प्रांतों में शिक्षा विभाग का गठन भी कर दिया गया। 1840 से 1858 के मध्य स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में किये गये प्रयासों को सार्थक परिणति तब मिली जब जे.ई.दी. बेथुन द्वारा 1849 में कलकत्ता में बेथुन स्कूल की स्थापना की गयी। बेथुन, शिक्षा परिषद (Council ofeducation) के अध्यक्ष थे । मुख्यतः बेथुन की अनुदान एवं निरीक्षण पद्धति के अधीन लाया गया।

इसी समय पूसा (बिहार) में कृषि संस्थान तथा रुड़की में अभियांत्रिकी संस्थान (engineering institute) की स्थापना की गयी।

हन्टर शिक्षा आयोग, 1882-83

प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में प्रारंभिक योजनाओं की उपेक्षा कर दी गयी। वर्ष 1870 से जबकि शिक्षा प्रांतों में स्थानांतरित की गयी तो प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा की स्थिति और ख़राब हो गयी क्योंकि प्रान्तों के सिमित संसाधनों के कारण वे इस दिशा में अपेक्षित व्यय नहीं कर पा रहे थे। 1882 में सरकार ने डब्ल्यू.डब्ल्यू. हंटर की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया, जिसे 1854 के पश्चात देश में शिक्षा की दिशा में किये गये प्रयासों एवं उसकी प्रगति की समीक्षा करना था। हंटर आयोग की समीक्षा का कार्य, केवल प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा तक ही सीमित था तथा विश्वविद्यालयों के कार्यों से इसका कोई संबंध नहीं था। इस आयोग ने सरकार को निम्न सुझाव दिये-

सरकार को प्राथमिक शिक्षा के सुधार और विकास की ओर विशेष ध्यान देना चाहिये। यह शिक्षा उपयोगी विषयों तथा स्थानीय भाषा में हो।

इसने सिफारिश की कि प्राथमिक पाठशालाओं का नियंत्रण नवसंस्थापित नगर और जिला बोर्डों को दे दिया जाये।

आयोग ने प्रेसीडेंसी नगरों के अतिरिक्त अन्य सभी शहरों, कस्बों एवं गांवों में स्त्री शिक्षा का पर्याप्त प्रबंध न होने पर खेद प्रकट किया तथा इसे प्रोत्साहित करने का सुझाव दिया।

इसने सुझाव दिया कि माध्यमिक शिक्षा के दो खंड होने चाहिए-

साहित्यिक : विश्वविद्यालय शिक्षा के लिये। तथा

व्यावहारिक : विद्यार्थियों के व्यावसायिक-व्यापारिक भविष्य निर्माण के लिये।

हन्टर शिक्षा आयोग के सुझावों के आने के पश्चात अगले 20 वर्षों में माध्यमिक एवं कालेज शिक्षा का तीव्र गति से विस्तार हुआ तथा भारतीयों ने इसमें सराहनीय योगदान दिया। अध्यापन एवं परीक्षा विश्वविद्यालयों की स्थापना भी गयी। जिनमें पंजाब विश्वविद्यालय (1882) एवं इलाहाबाद विश्वविद्यालय (1887) प्रमुख थे।

भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम, 1904

20वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में देश में राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण था। निजी प्रबंधन के तहत सरकार की धारणा यह थी कि शिक्षा के स्तर में गिरावट आ रही है तथा शिक्षण संस्थान राजनीतिक क्रांतिकारियों को पैदा करने वाले कारखाने मात्र बनकर रह गये हैं। राष्ट्रवादियों ने भी स्वीकार किया कि शिक्षा के स्तर में गिरावट आ रही है परंतु इसके लिये उन्होंने सरकार को दोषी ठहराया तथा आरोप लगाया कि सरकार अशिक्षा को दूर करने के लिये कोई सार्थक कदम नहीं उठा रही है।

सन् 1902 में सर टामस रैले की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया गया, जिसका उद्देश्य विश्वविद्यालयों की स्थिति का आंकलन करना तथा उनकी कार्यक्षमता एवं उनके संविधान के विषय में सुझाव देना था। प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा इस कार्यक्षेत्र में सम्मिलित नहीं थी। इसकी सिफारिशों के आधार पर 1904 में भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पारित किया गया। इस अधिनियम के अनुसार-

विश्वविद्यालयों को अध्ययन तथा शोध-ज्यादा पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।

विश्वविद्यालय के उप-सदस्यों (Fellows) की संख्या तथा अवधि कम की जानी चाहिए तथा यह प्रावधान किया जाना चाहिए कि ये उप-सदस्य मुख्य रूप से सरकार द्वारा मनोनीत हों।

विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण बढ़ा दिया गया। सरकार की सीनेट द्वारा पास किये गये प्रस्तावों पर निषेधाधिकार (veto) दिया गया। सरकार को यह अधिकार था कि वह सीनेट द्वारा बनाये गये नियमों में परिवर्तन एवं संशोधन कर सकती थी। सरकार यदि आवश्यक समझे तो इस संबंध में नये नियम भी बना सकती थी।

अशासकीय कालेजों पर सरकार नियंत्रण और कड़ा कर दिया गया।

उच्च शिक्षा तथा विश्वविद्यालयों के उत्थान के लिये 5 लाख रुपये की राशि प्रति वर्ष की दर से 5 वर्षों के लिये स्वीकृत की गयी।

गवर्नर-जनरल को विश्वविद्यालयों की क्षेत्रीय सीमायें निर्धारित करने का अधिकार दे दिया गया।

कर्जन ने गुणवत्ता एवं दक्षता के नाम पर विश्वविद्यालयों में सरकारी नियंत्रण अत्यधिक कड़ा कर दिया। लेकिन उसका वास्तविक उद्देश्य राष्ट्रवाद के समर्थक शिक्षितों की संख्या को रोकना तथा उन्हें सरकारी भक्त बनाना था।

राष्ट्रवादियों ने इस अधिनियम की तीव्र आलोचना की तथा इसे साम्राज्यवाद को सुदृढ़ करने के एक प्रयास के रूप में देखा। उन्होंने आरोप लगाया कि यह अधिनियम राष्ट्रवादी भावनाओं की हत्या कर प्रयास है। गोपाल कृष्ण गोखले ने इसे “राष्ट्रीय शिक्षा को पीछे की ओर ले जाने वाला अधिनियम” की संज्ञा दी।

सैडलर विश्वविद्यालय आयोग (1917-19)

स्कूल की शिक्षा 12 वर्ष की होनी चाहिए। विद्यार्थियों को हाईस्कूल के पश्चात नहीं अपितु उच्चतर-माध्यमिक परीक्षा के पश्चात त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम के लिये विश्वविद्यालय में दाखिला लेना चाहिये। यह निम्न प्रकार से किया जाना चाहिए-

विश्वविद्यालय स्तर के लिये विद्यार्थियों को तैयार करके।

उच्चतर-माध्यमिक शिक्षा के पश्चात स्नातक की उपाधि के लिये त्रिवर्षीय शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये।

वे छात्र जो विश्वविद्यालयीन शिक्षा हेतु जाने के लिये तैयार न हों उन्हें कालेज स्तर की शिक्षा दी जानी चाहिये। माध्यमिक तथा उच्चतर-माध्यमिक शिक्षा के प्रशासन एवं नियंत्रण के लिये पृथक माध्यमिक एवं उच्चतर-माध्यमिक शिक्षा बोर्डों का गठन किया जाना चाहिये।

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