18 वी सदी मे भारत मे राज्य और समाज
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that's not full question ⁉️
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मुगल साम्राज्य के कमज़ोर होने के साथ-साथ स्थानीय राजनीतिक और आर्थिक शक्तियां सिर उठाने लगीं। 17वीं सदी के अंत और उसके बाद की राजनीति में व्यापक परिवर्तन हुआ 18वीं सदी के दौरान बिखरते मुगल साम्राज्य और उसकी खंडित राजनीतिक व्यवस्था पर बड़ी संख्या में स्वतंत्र और अर्ध स्वतंत्र शक्तियां उठ खड़ी हुईं, जैसे बंगाल, अवध, हैदराबाद, मैसूर और मराठा राजशाही। अंग्रेजों को भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए इन्हीं से पर विजय प्राप्त करनी पड़ी।
credit: third party image reference
इनमें से कुछ राज्यों जैसे अवध तथा हैदराबाद को "उत्तराधिकारी वाले राज्य" कहा जा सकता है मुगल साम्राज्य की केंद्रीय शक्ति में कमज़ोरी तथा मुगल प्रांतों के गवर्नर के स्वतंत्रता के दावे से इन राज्य का जन्म हुआ। दूसरे मराठा, अफगान,जाट तथा पंजाब जैसे राज्यों का जन्म मुगल शासन के खिलाफ स्थानीय सरदारों, जमींदारों तथा किसानों के विद्रोह के कारण हुआ था। न केवल दो तरह के राज्यों के राजनीति कुछ हद तक भिन्न होती थी बल्कि इन सब में आपस में स्थानीय परिस्थितियों के कारण भी अंतर था। फिर भी इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि मोटे तौर पर इन सभी का राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचा तकरीबन एक-सा ही था। लेकिन एक तीसरा क्षेत्र भी था इसमें दक्षिण-पश्चिम तथा दक्षिण-पूर्व के समुद्री किनारों के इलाके तथा उत्तर-पूर्वी भारत के क्षेत्र शामिल थे जहां पर किसी भी रूप मुगल प्रभाव नहीं पहुंच सका था। मुगल सम्राट की नाममात्र की सर्वोच्चता स्वीकार कर और उसके प्रतिनिधि के रूप में स्वीकृति प्राप्त कर 18वीं शताब्दी के सभी राज्यों के शासकों ने अपने पद को वैधता प्रदान करने की कोशिश की थी। बहरहाल इनमें से लगभग सभी ने मुगल प्रशासन के तौर-तरीके और उसकी पद्धति को अपनाया। पहले समूह में आने वाले राज्यों ने उत्तराधिकार के रूप में कार्य विधि, मुगल प्रशासनिक ढांचा और संस्थाओं को प्राप्त किया था। दूसरों ने, इनमें अलग-अलग मात्रा में थोड़ा बहुत परिवर्तन करके इस ढांचे तथा इन संस्थाओं को अपनाया था जिसमें मुगल शासकों की राजस्व व्यवस्था भी शामिल थी।
इन राज्यों के शासकों ने शांति व्यवस्था बहाल की तथा व्यवहारिक, आर्थिक और प्रशासनिक ढांचा खड़ा किया।निचले स्तर पर काम करने वाले अधिकारियों, छोटे-छोटे सरदारों तथा जमींदारों की ताकतें कम कीं और इस काम में सबको अलग अलग मात्रा में सफलता मिली। किसान के अधिशेष उत्पादन पर नियंत्रण के लिए यह लोग ऊपर के अधिकारियों से झगड़ते रहते है और कभी-कभी सत्ता और संरक्षण के स्थानीय केंद्र कायम करने में यह लोग सफल भी हो जाते थे। उन्होंने उन स्थानीय ज़मीदारों तथा सरदारों से भी समझौता किया तथा उनको अपने साथ लिया जो शांति और व्यवस्था चाहते थे। आमतौर पर, कहा जाए तो, अधिकांश राज्य में राजनीतिक अधिकारों का विकेंद्रीकरण हो गया तथा सरदारों, जागींदारों और जमींदारों को इसके कारण राजनीतिक और आर्थिक शक्ति की दृष्टि से लाभ मिला। इन राज्यों की राजनीति लगातार गैर-सांप्रदायिक या धर्मनिरपेक्ष बनी रही क्योंकि इन राज्य के शासकों की आर्थिक तथा राजनीतिक प्रेरक शक्ति सामान थी। सार्वजनिक स्थानों की नियुक्तियों, सेना में भर्ती या नागरिक सेवाओं में यह शासक धार्मिक पर भेदभाव नहीं बरतते थे और जब लोग किसी सत्ता अथवा शासन के विरुद्ध विद्रोह करते थे तो इस बात पर विचार नहीं करते थे की उनके शासक का धर्म क्या है। इसलिए इस बात पर विश्वास करने के लिए कोई आधार नहीं मिलता है कि मुगल साम्राज्य के पतन और विघटन के बाद भारत के विभिन्न भागों में कानून और व्यवस्था की समस्या उठ खड़ी हुई और चारों ओर अराजकता फैल गई। वास्तविकता तो यह है कि 18वीं शताब्दी में प्रशासन तथा अर्थव्यवस्था में जो भी अव्यवस्था व विद्यमान थी, वह भारतीय राज्यों के आंतरिक मामलों में ब्रिटिश हस्तक्षेप और ब्रिटेन द्वारा चलाए गए विजय अभियानों का परिणाम थी।
17वीं सदी में जो आर्थिक संकट शुरू हुए थे,उनकी रोकथाम इनमें से कोई भी राज्य नहीं कर पाया। इनमें से सभी राज्य मूल रूप से कर उगाहने वाले राज्य बने रहे। जमींदारों और जागीरदारों संख्या तथा राजनीतिक ताकत में लगातार वृद्धि होती गई और कृषि से होने वाली आमदनी के लिए वे लगातार आपस मैं झगड़ते रहे। इसके साथ साथ किसानों की हालत दिनोंदिन बिगड़ती चली गई। जहां इन राज्यों ने आंतरिक व्यापार को ठप्प नहीं होने दिया वही इन्होंने विदेशों से बढ़ावा देने की कोशिश भी की। लेकिन अपने राज्य के आधारभूत औद्योगिक और वाणिज्य ढांचे को आधुनिक रूप देने के लिए इन लोगों ने कुछ नहीं किया इससे यह बात साफ हो जाती है कि वह आपस में संगठित क्यों नहीं हो सके और विदेशी आक्रमण को विफल करने में उनको क्यों सफलता हासिल नहीं हो सकी।
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इनमें से कुछ राज्यों जैसे अवध तथा हैदराबाद को "उत्तराधिकारी वाले राज्य" कहा जा सकता है मुगल साम्राज्य की केंद्रीय शक्ति में कमज़ोरी तथा मुगल प्रांतों के गवर्नर के स्वतंत्रता के दावे से इन राज्य का जन्म हुआ। दूसरे मराठा, अफगान,जाट तथा पंजाब जैसे राज्यों का जन्म मुगल शासन के खिलाफ स्थानीय सरदारों, जमींदारों तथा किसानों के विद्रोह के कारण हुआ था। न केवल दो तरह के राज्यों के राजनीति कुछ हद तक भिन्न होती थी बल्कि इन सब में आपस में स्थानीय परिस्थितियों के कारण भी अंतर था। फिर भी इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि मोटे तौर पर इन सभी का राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचा तकरीबन एक-सा ही था। लेकिन एक तीसरा क्षेत्र भी था इसमें दक्षिण-पश्चिम तथा दक्षिण-पूर्व के समुद्री किनारों के इलाके तथा उत्तर-पूर्वी भारत के क्षेत्र शामिल थे जहां पर किसी भी रूप मुगल प्रभाव नहीं पहुंच सका था। मुगल सम्राट की नाममात्र की सर्वोच्चता स्वीकार कर और उसके प्रतिनिधि के रूप में स्वीकृति प्राप्त कर 18वीं शताब्दी के सभी राज्यों के शासकों ने अपने पद को वैधता प्रदान करने की कोशिश की थी। बहरहाल इनमें से लगभग सभी ने मुगल प्रशासन के तौर-तरीके और उसकी पद्धति को अपनाया। पहले समूह में आने वाले राज्यों ने उत्तराधिकार के रूप में कार्य विधि, मुगल प्रशासनिक ढांचा और संस्थाओं को प्राप्त किया था। दूसरों ने, इनमें अलग-अलग मात्रा में थोड़ा बहुत परिवर्तन करके इस ढांचे तथा इन संस्थाओं को अपनाया था जिसमें मुगल शासकों की राजस्व व्यवस्था भी शामिल थी।
इन राज्यों के शासकों ने शांति व्यवस्था बहाल की तथा व्यवहारिक, आर्थिक और प्रशासनिक ढांचा खड़ा किया।निचले स्तर पर काम करने वाले अधिकारियों, छोटे-छोटे सरदारों तथा जमींदारों की ताकतें कम कीं और इस काम में सबको अलग अलग मात्रा में सफलता मिली। किसान के अधिशेष उत्पादन पर नियंत्रण के लिए यह लोग ऊपर के अधिकारियों से झगड़ते रहते है और कभी-कभी सत्ता और संरक्षण के स्थानीय केंद्र कायम करने में यह लोग सफल भी हो जाते थे। उन्होंने उन स्थानीय ज़मीदारों तथा सरदारों से भी समझौता किया तथा उनको अपने साथ लिया जो शांति और व्यवस्था चाहते थे। आमतौर पर, कहा जाए तो, अधिकांश राज्य में राजनीतिक अधिकारों का विकेंद्रीकरण हो गया तथा सरदारों, जागींदारों और जमींदारों को इसके कारण राजनीतिक और आर्थिक शक्ति की दृष्टि से लाभ मिला। इन राज्यों की राजनीति लगातार गैर-सांप्रदायिक या धर्मनिरपेक्ष बनी रही क्योंकि इन राज्य के शासकों की आर्थिक तथा राजनीतिक प्रेरक शक्ति सामान थी। सार्वजनिक स्थानों की नियुक्तियों, सेना में भर्ती या नागरिक सेवाओं में यह शासक धार्मिक पर भेदभाव नहीं बरतते थे और जब लोग किसी सत्ता अथवा शासन के विरुद्ध विद्रोह करते थे तो इस बात पर विचार नहीं करते थे की उनके शासक का धर्म क्या है। इसलिए इस बात पर विश्वास करने के लिए कोई आधार नहीं मिलता है कि मुगल साम्राज्य के पतन और विघटन के बाद भारत के विभिन्न भागों में कानून और व्यवस्था की समस्या उठ खड़ी हुई और चारों ओर अराजकता फैल गई। वास्तविकता तो यह है कि 18वीं शताब्दी में प्रशासन तथा अर्थव्यवस्था में जो भी अव्यवस्था व विद्यमान थी, वह भारतीय राज्यों के आंतरिक मामलों में ब्रिटिश हस्तक्षेप और ब्रिटेन द्वारा चलाए गए विजय अभियानों का परिणाम थी।
17वीं सदी में जो आर्थिक संकट शुरू हुए थे,उनकी रोकथाम इनमें से कोई भी राज्य नहीं कर पाया। इनमें से सभी राज्य मूल रूप से कर उगाहने वाले राज्य बने रहे। जमींदारों और जागीरदारों संख्या तथा राजनीतिक ताकत में लगातार वृद्धि होती गई और कृषि से होने वाली आमदनी के लिए वे लगातार आपस मैं झगड़ते रहे। इसके साथ साथ किसानों की हालत दिनोंदिन बिगड़ती चली गई। जहां इन राज्यों ने आंतरिक व्यापार को ठप्प नहीं होने दिया वही इन्होंने विदेशों से बढ़ावा देने की कोशिश भी की। लेकिन अपने राज्य के आधारभूत औद्योगिक और वाणिज्य ढांचे को आधुनिक रूप देने के लिए इन लोगों ने कुछ नहीं किया इससे यह बात साफ हो जाती है कि वह आपस में संगठित क्यों नहीं हो सके और विदेशी आक्रमण को विफल करने में उनको क्यों सफलता हासिल नहीं हो सकी।
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