1857 me बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली ,झांसी इत्यादि जगहों पर किन-किन वीर और वीरांगनाओं ने अपनी वीर गाथा लिखी है 1857 की क्रांति में ।
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अप्रैल, को बेग़म हज़रत महल की पुण्यतिथि थी. इतिहास में हज़रत महल का नाम 1857 के भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में असीम शौर्य और साहस के साथ अंग्रेज़ों से टक्कर लेने के लिए दर्ज है. बेग़म हज़रत महल को याद करते हुए हमें उन दूसरी स्त्रियों को भी याद करना चाहिए जिन्होंने 1857 के संग्राम में अपनी जान की क़ुर्बानियां दीं, मगर इनमें से ज़्यादातर को न तो कोई जानता है, न जिनका कहीं ज़िक्र किया जाता है.
जब हम 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की बात करते हैं, तब हमारा ध्यान तुरंत रानी लक्ष्मीबाई और बेग़म हज़रत महल की ओर जाता है. लेकिन क्या, इस संघर्ष में सिर्फ़ इन्हीं दो स्त्रियों का योगदान था? इस संघर्ष में दलित समुदायों से आने वाली औरतें थीं (विद्वान जिन्हें दलित वीरांगनाएं कहकर पुकारते हैं), कई भटियारिनें या सराय वालियां थीं, जिनके सरायों में विद्रोही योजनाएं बनाते थे. कई कलावंत और तवायफ़ें भी इसमें मददगार थीं, जो समाचार और सूचनाएं पहुंचाने का काम करती थीं. कइयों ने तो पैसों से भी इसमें मदद की.
मगर ऐसा क्यों है कि हम शायद ही कभी इन औरतों के बारे में बात करते हैं? क्या इसकी वजह यह है कि ये औरतें समाज के हाशिए से ताल्लुक रखती थीं और इसी कारण इनके बलिदानों को कहीं दर्ज नहीं किया गया? या इसकी वजह यह है कि इनकी साहस की कहानियां कहने वाला कोई नहीं था? या इतिहास में इनकी ग़ैरहाजिरी की वजह यह है कि परंपरागत पितृसत्तात्मक समाजों में औरतों को योद्धाओं के तौर पर नहीं देखा जाता था?
1857 के बाद विजेताओं ने इतिहास को दुबारा इस तरह से लिखा कि ये उनके हितों को आगे बढ़ाए. अपने ख़िलाफ़ हुई बग़ावत में भाग लेने वालों की प्रशंसा करना या उनका महिमामंडन करना, निश्चित तौर पर उनके एजेंडे में नहीं था. झांसी की रानी की लोकप्रियता की वजह यह है कि वे मौखिक परंपरा और लोकगीतों में जीवित रहीं. उनको लेकर दर्जनों लोकगीत रचे गए, जो आज भी गाए जाते हैं.
अवध के संभ्रांत तबके ने बेग़म हज़रत महल की विरासत को संभाले रखा. ये बात दीगर है कि उनके तरीक़े लोकगीतों की तरह शक्तिशाली नहीं साबित हुए. बाद में कॉमिक्स की क़िताबों, ख़ासकर अमर चित्रकथा की श्रृंखला ने कुछ गिनी-चुनी शख़्सियतों की कहानियों को जिलाए रखने का काम किया. लेकिन, इन ज़्यादातर औरतों का वजूद बस अंग्रेज़ी दस्तावेज़ों में दर्ज नामों तक ही सीमित है. इससे बाहर इनके बारे में शायद ही कोई कुछ जानता है.
बेग़म हज़रत महल
10 मई 1857 को मेरठ के ‘सिपाहियों’ ने अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ विद्रोह का झंडा बुलंद किया था. जल्द ही कई और लोग मुग़ल बादशाह बहादुर शाह द्वितीय के सांकेतिक नेतृत्व में, जिन्हें विद्रोहियों ने शहंशाह-ए-हिंद का ख़िताब दिया था, इस विद्रोह में शामिल हो गए.
यह विद्रोह अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एक व्यापक स्वतंत्रता संग्राम में तब्दील हो गया, जिसमें राजा, कुलीन तबका, ज़मींदार, किसान, आदिवासी और साधारण लोग, सब कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रहे थे. फिर भी इतिहासकार अपने घरों से बाहर निकलने वाली और कंपनी बहादुर के ख़िलाफ़ लड़ाई में पुरुषों के साथ मिलकर लड़ने वाली स्त्रियों की उपेक्षा करते दिखते हैं और उन्हें पूरी तरह बिसरा देते हैं.
अवध में गद्दी से बेदख़ल किये गये नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी बेग़म हज़रत महल ने ईस्ट इंडिया कंपनी की शक्ति का मुक़ाबला किया और वे कामयाब होते-होते रह गईं. 1857 में अंग्रेज़ों का सबसे लंबे समय तक मुक़ाबला बेग़म हज़रत महल ने सरफ़द्दौलाह, महाराज बालकृष्ण, राजा जयलाल और सबसे बढ़कर मम्मू ख़ान जैसे अपने विश्वासपात्र अनुयाइयों के साथ मिलकर किया. इस लड़ाई में उनके सहयोगी बैसवारा के राणा बेनी माधव बख़्श, महोना के राजा दृग बिजय सिंह, फ़ैज़ाबाद के मौलवी अहमदुल्लाह शाह, राजा मानसिंह और राजा जयलाल सिंह थे.
हज़रत महल ने चिनहट की लड़ाई में विद्रोही सेना की शानदार जीत के बाद 5 जून, 1857 को अपने 11 वर्षीय बेटे बिरजिस क़द्र को मुग़ल सिंहासन के अधीन अवध का ताज पहनाया. अंग्रेज़ों को लखनऊ रेजिडेंसी में शरण लेने के लिए विवश होना पड़ा. यहां एक के बाद श्रृंखला में कई घटनाएं हुईं, जो आज लखनऊ की घेराबंदी के तौर पर प्रसिद्ध हैं. बिरजिस क़द्र के राज-प्रतिनिधि (रीजेंट) के तौर पर हज़रत महल का फ़रमान पूरे अवध में चलता था.
विलियम होवर्ड रसेल ने अपने संस्मरण- ‘माय इंडियन म्यूटिनी डायरी’ में लिखा है, ‘ये बेग़म ज़बरदस्त ऊर्जा और क्षमता का प्रदर्शन करती हैं. उन्होंने पूरे अवध को अपने बेटे के हक़ की लड़ाई में शामिल होने के लिए तैयार कर लिया है. सरदारों ने उनके प्रति वफ़ादार रहने की प्रतिज्ञा ली है. बेग़म ने हमारे ख़िलाफ़ आख़िरी दम तक युद्ध लड़ने की घोषणा कर दी ह
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