19. रैदास की भक्ति भावना कैसी है? please tell me
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रैदास बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। रैदास की भक्ति उनके लिए कोई बड़ा-छोटा , अमीर -गरीब नहीं है | उनके लिए सब एक समान थे वह किसी के साथ भेद-भाव नहीं रखते थे | उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित - भावना तथा सदव्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है।
जैसा कि रैदास के जीवन-वृन्त से स्पष्ट है कि वे एक चर्मकार कुल में पैदा हुए थे तथा जूते बनाने का कार्य करते थे किन्तु उनमें ईश्वर के प्रति अपार आस्था थी ईश्वर के प्रति एकनिष्ठ भक्ति ने ही उन्हें सामान्य मानव से ऊपर उठाकर भक्त के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। भक्ति की परिभाषा 'भज सेवार्थन भक्ति' के अनुसार सेवा करना ही भक्ति है। रैदास साधु-संतों और जन सामान्य लोगों के प्रति परोपकारी और दयालुता की भावना रखते थे उनमें लोभ, मोह, माया, अहंकार और क्रोध नाम की कोई वस्तु नहीं थी, बल्कि ईश्वर और ईश्वरीय सत्ता के रूप में सभी प्राणियों की सेवा का भाव था। उनमें भक्ति की अपार आस्था थी। यही कारण था कि वे कहते थे कि 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।'
रैदास की भक्ति दास्य भाव की थी। वे ईश्वर को स्वामी और अपने को उसका
समझते थे उन्होंने स्वयं कहा है कि
प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भगति करें रैदासा ।"" रैदास की भक्ति अद्वैत भाव की है वे जीव और बाह्म के अभेद सम्बन्ध को स्वीकार
करते हुए कहते है कि- प्रभु जी तुम सदन हम पानी, जाकी अंग-अंग वास समानी' वैदिक सिद्धान्त - जीवोब्रद्यैवनापर:, के अनुसार जीव और ब्रह्म का सम्बन्ध अंशाशी का अर्थात् यदि बह्म अश है तो जीव उसका अंशी, एक अंश मात्र रैदास जैसे कबीर जी का भी
यही मानना है कि जल में कुम्म, कुम्म में जल है भीतर बाहर पानी
फूटा कुम्भजल जलाई समाना यह तत अकथ कहानी।
रैदास जी ने भक्ति के लिए मन की स्थिरता और आस्था की दृढ़ता को प्रधान माना है लोग मूर्ख है जो मेरे, तेरे के भेद के कारण ईश्वर को पहचान नहीं पाते। सभी तो ईश्वर के अंग
है। फिर यह भेद कैसा ? मै तोरि मोरि असमझ सी, कैसे करि निसतारा'
रैदास जी की भक्ति सहज भाव की है, वे वाह्याडंवर, ढोग-पाखण्ड की धज्जियां उड़ाने में
सिद्धहस्त है। कठिन साधना और घोर तपस्या से ईश्वर को पाना सम्भव नहीं है। देवता, ऋषि
मुनि सभी युगों-युगों तक उसको पाने का प्रयत्न करते है किन्तु प्रेम के अभाव में उसका साक्षात्कार
(दर्शन) नहीं कर पाते इसी अर्थ में रैदास जी कहते हैं कि - "सिव सनकादिक अंत न पाया, खोजत ब्रह्मा जनम गंवाया।"
भगवान के प्रति दृढ आशय न होने के कारण किसी भी जाति का या धर्म का होते हुए भी ईश्वर का दर्शन नहीं पाता हरि को भजै सो हरि का होई. वे सभी ईश्वर भक्त है जो उनमें अपार श्रद्धा रखते हैं। कबीर ने भी को ब्राह्मण को शुद्रा कहा है। इसी अर्थ में रैदास जी भी कहते है
कि- पटक्रम सहित जे विप्र होते, हरि भगत चित द्रिढ़ नाहि रे ।'
इस प्रकार हम देखते है कि रैदास की भक्ति सहज और आडम्बर मुक्त है। मानवतावादी,
समन्वयात्मक और आस्था, विश्वासपूर्ण है।