History, asked by kajalk4095, 9 months ago

.1970 के दशक में क्षेत्रीय शक्तियों के उद्भव का विश्लेषण कीजिए
[दिसम्बर-2009,प्र.सं.-1]​

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Answered by sureshgowda24244
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Answer:

भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का वजूद हमेशा ही रहा है- आजादी से पहले राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में भी और आजादी के बाद भी लंबे समय तक. लेकिन उनकी भूमिका सिर्फ उनसे संबंधित राज्यों तक ही सीमित रही.

यह स्थिति लगभग 1980 के दशक की शुरुआत से तब तक बनी रही जब तक कि राष्ट्रीय आंदोलन की कोख से जन्मी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तमाम तरह की क्षेत्रीय आकांक्षाओं, अस्मिताओं और संवेदनाओं से अपने को जोड़े रही और उनका पर्याप्त आदर करती रही. लेकिन 1980 के दशक के मध्य तक तेलुगू देशम पार्टी और असम गण परिषद जैसे नए क्षेत्रीय दलों का धमाकेदार उदय हुआ. उसी दशक के खत्म होते-होते देश में गठबंधन राजनीति का दौर शुरू हो गया और उसी के साथ शुरू हुआ राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का दखल और दबदबा.

1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुवाई में वामपंथी दलों और भारतीय जनता पार्टी के बाहरी समर्थन से बनी राष्ट्रीय मोर्चा सरकार से लेकर मई 2014 तक डॉ. मनमोहन सिंह की अगुवाई में चली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार तक लगभग हर सरकार में क्षेत्रीय दलों की अहमियत बनी रही.

लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने जिस तरह अपनी जीत का डंका बजाया था और फिर राज्यों के विधानसभा चुनावों में उसने अपनी जीत का सिलसिला शुरू किया, उससे कई राजनीतिक विश्लेषकों ने यह मान लिया था कि अब देश की राजनीति में क्षेत्रीय दलों के दिन लद गए हैं.

उनकी इस धारणा को 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने भी और ज़्यादा पुष्ट किया. लेकिन उस आम चुनाव के बाद महाराष्ट्र, हरियाणा और पिछले महीने दिसंबर में झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजों ने उस धारणा का खंडन करते हुए साबित किया कि क्षेत्रीय दलों का वजूद अभी ख़त्म नहीं हुआ है और वे राष्ट्रीय राजनीति में अपना दखल बनाए रखते हुए राष्ट्रीय दलों की मजबूरी बने रहेंगे.कई राज्यों में सीधी टक्कर

देश में इस समय मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, छत्तीसगढ, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, असम और त्रिपुरा ही ऐसे राज्य हैं जहां किसी भी चुनाव में राष्ट्रीय पार्टियों के बीच सीधा मुकाबला होता है.

हालांकि इनमें से कर्नाटक, उत्तराखंड, असम और त्रिपुरा में तो राष्ट्रीय दलों के साथ ही क्षेत्रीय दल भी वजूद में हैं और कई मौकों पर वे सत्ता समीकरणों को प्रभावित भी करते रहते हैं. कुल मिलाकर देश के दो तिहाई से ज़्यादा राज्य ऐसे हैं, जहां क्षेत्रीय दल न सिर्फ़ पूरे दमखम के साथ वजूद में हैं, बल्कि कई राज्यों में तो अपने अकेले के बूते सत्ता पर काबिज़ हैं तो कई राज्यों में राष्ट्रीय दलों के साथ सत्ता में साझेदार बने हुए हैं.

हाल के समय में हुए विधानसभा चुनावों की बात करें तो महाराष्ट्र में दो गठबंधनों के बीच मुकाबला था और दोनों गठबंधनों की अगुवाई राष्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेस कर रहे थे. दोनों गठबंधन में एक-एक क्षेत्रीय पार्टी शामिल थी.

भाजपा के साथ शिव सेना और कांग्रेस के साथ राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी). चुनाव नतीजे आए तो दोनों क्षेत्रीय पार्टियां राष्ट्रीय पार्टियों पर भारी पडी. शिव सेना ने तो सबसे बड़े दल के रूप में उभरी भाजपा से नाता तोड़ कर उसका सरकार बनाने का सारा खेल ही बिगाड दिया. दूसरी ओर एनसीपी ने भी कांग्रेस से बेहतर प्रदर्शन कर अपने पर उसकी निर्भरता को और बढा दिया.

हरियाणा में भी हालांकि भाजपा ने बहुमत से दूर रहने के बावजूद सरकार बना ली लेकिन इसके लिए उसे राज्य के नवजात क्षेत्रीय दल जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) को न सिर्फ सत्ता में साझेदार बनाना पडा बल्कि उसकी शर्तों के आगे समर्पण भी करना पडा.

झारखंड में भी एक क्षेत्रीय दल झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस और भाजपा से आगे रहा. गठबंधन में कांग्रेस को उसका नेतृत्व कबूल करना पडा. पिछली बार भाजपा ने भी इस राज्य में एक अन्य क्षेत्रीय दल ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) के साथ मिलकर चुनाव लडा था और उसके सहयोग से ही सरकार बनाई थी. लेकिन इस बार उसने अकेले चुनाव लड़ा जिसका खामियाजा भी उसे सत्ता गंवाने के रूप में भुगतना पडा.

उधर आजसू को पिछली बार की तुलना में इस बार एक सीट का नुकसान हुआ लेकिन वह अपना वोट प्रतिशत बढाने में कामयाब रहा.

वो पाँच कारण, जिनसे झारखंड में चित हुई बीजेपी

क्या झारखंड के नतीजे बिहार चुनाव की झलक है?

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