1991 से पहले सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका क्या थी?
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1991 से पहले सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका :
स्वतंत्रता के समय, यह उम्मीद की गई थी कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम अर्थव्यवस्था के कुछ उद्देश्यों को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे या तो व्यापार में प्रत्यक्ष भागीदारी या उत्प्रेरक के रूप में कार्य करेंगे।
भारतीय अर्थव्यवस्था आज परिवर्तन के चरण में है। विकास के प्रारंभिक चरणों में पंचवर्षीय योजनाओं ने सार्वजनिक क्षेत्र को बहुत अधिक महत्व दिया। 1990 के दशक के बाद की नई आर्थिक नीतियों में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण पर जोर दिया गया व सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को फिर से परिभाषित किया गया।
मूलभूत ढांचे का विकास :
औद्योगीकरण की प्रक्रिया पर्याप्त परिवहन एवं संचार सुविधाओं, ईंधन और ऊर्जा, और बुनियादी और भारी उद्योगों के बिना जीवित नहीं रह सकती है। यह कार्य केवल सरकार द्वारा ही किया जाना संभव था।
क्षेत्रीय संतुलन :
सभी क्षेत्रों और राज्यों को संतुलित तरीके से विकसित करने और क्षेत्रीय विषमताओं को दूर करने के लिए सरकार जिम्मेदार है। इसके लिए सरकार को पिछड़े क्षेत्रों में नए उद्योगों की स्थापना करनी पड़ी।
बड़े पैमाने के लाभ :
जहां भारी पूंजी के साथ बड़े पैमाने पर उद्योग स्थापित करने की आवश्यकता होती है, वहां बड़े पैमाने के फायदे को प्राप्त करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र को आगे आना पड़ा।
बिजली संयंत्र, प्राकृतिक गैस, पेट्रोलियम और टेलीफोन उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी इकाइयों की स्थापना के कुछ उदाहरण हैं।
आर्थिक शक्ति के केंद्रीकरण पर रोक :
सार्वजनिक क्षेत्र निजी क्षेत्र पर नियंत्रण रखता है। निजी क्षेत्र में बहुत कम औद्योगिक घराने हैं जो भारी उद्योगों में निवेश करना चाहते हैं
आयात का पूरक :
दूसरी और तीसरी पंचवर्षीय योजना अवधि के दौरान, भारत कई क्षेत्रों में आत्मनिर्भर होने का लक्ष्य बना रहा था। उस समय, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां भारी इंजीनियरिंग उद्योगों में शामिल थीं जिससे आयात प्रतिस्थापन में मदद हो सके।
आशा है कि यह उत्तर आपकी अवश्य मदद करेगा।।।।
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Explanation:
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का विकास
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का विकास
स्वतंत्रता के पहले हमारा देश आय में असमानता और रोजगार के निम्न स्तर, आर्थिक विकास और प्रशिक्षित जनशक्ति, कमजोर औद्योगिक आधार, अपर्याप्त निवेश और बुनियादी सुविधाओं, आदि के अभाव में क्षेत्रीय असंतुलन जैसी गंभीर सामाजिक और आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा था।
इसलिए, सार्वजनिक क्षेत्र का खाका आत्मनिर्भर आर्थिक विकास के लिए एक साधन के रूप में विकसित किया गया था। देश ने योजनाबद्ध आर्थिक विकास की नीतियां बनाकर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के विकास की परिकल्पना को अपनाया।
प्रारंभ में, सार्वजनिक क्षेत्र के प्रमुख और सामरिक उद्योगों तक ही सीमित था। दूसरे चरण में उद्योगों का राष्ट्रीयकरण, बीमार इकाइयों के निजी क्षेत्र द्वारा अधिग्रहण, और सार्वजनिक क्षेत्र का नए उपक्रमों में प्रवेश जैसे उपभोक्ता वस्तुओं का निर्माण, सलाहकारी संस्था, करार और परिवहन आदि देखा गया।
औद्योगिक नीति संकल्प पत्र 1948 ने अर्थव्यवस्था की जरुरत और इसके लिए उत्पादन में निरंतर वृद्धि और न्याय संगत वितरण को महत्वपूर्ण बताया। इस प्रक्रिया में, नीति उद्योगों के विकास में राज्यों की सक्रिय भागीदारी की परिकल्पना की गई।
औद्योगिक नीति संकल्प पत्र 1956 ने उद्यमों को राज्यों द्वारा निभाई गई भूमिका के आधार पर तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया -
पहली श्रेणी (अनुसूची अ) में उन उद्यमों को शामिल किया गया जिनके विकास की विशेष जिम्मेदारी भविष्य में राज्यों की होगी।
दूसरी श्रेणी (अनुसूची ब) में उन उद्यमों को शामिल किया गया जिनका विकास मुख्य रूप से राज्य द्वारा संचालित किया जाएगा परंतु राज्य के प्रयासों के पूरक के तौर पर निजी भागीदारी को शामिल होने की अनुमति होगी।
और, तीसरी श्रेणी में शेष उद्योगों, जो निजी क्षेत्र के लिए छोड़ दिए गए थे शामिल थे।