19bi stabdi k bhart rasstiye chetna k udye ki vibechna kijiye 500 words
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भारतीय वाङ्गमय में ‘राष्ट्र’ शब्द का प्रयोग वैदिक काल से ही होता रहा है। यजुर्वेद के ‘राष्ट्र में देहि’ और अथर्वेद के ‘त्वा राष्ट्र भृत्याय’ में राष्ट्र शब्द समाज के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मानव की सहज सामुदायिक भावना ने समूह को जन्म दिया, जो कालान्तर में राष्ट्र के रूप में स्थापित हुआ। राष्ट्र एक समुच्चय है, कुलक है और राष्ट्रीयता एक विशिष्ट-भावना है। जिस जन समुदाय में एकता की एक सहज लहर हो, उसे राष्ट्र कहते हैं। आर्यों की भूमि आर्यावर्त में एक वाह्य एकता के ही नहीं वैचारिक एकता के भी प्रमाण मिलते हैं। आर्यों की परस्पर सहयोग तथा संस्कारित सहानुभूति की भावना राष्ट्रीय संचेतना का प्रतिफल है। साहित्य का मनुष्य से शाश्वत संबंध है। साहित्य सामुदायिक विकास में सहायक होता है और सामुदायिक भावना राष्ट्रीय चेतना का अंग है।
आधुनिक युग में भारत माता की कल्पना अथर्ववेद के सूक्तकार की देन है। वह स्वयं को धरती पुत्र मानता हुआ कहता है—‘‘माता भूमिः पुत्रो ऽहं पृथिव्याः’’अथर्ववेद के पृथ्वी-सूक्त का प्रत्येक मंत्र राष्ट्र-भक्ति का पाठ पढ़ाता है। वेदों में राष्ट्रीयता की भावना मातृभूमि-स्तवन और महापुरुषों (देवताओं) के कीर्तिगान के द्वारा प्रकट होती है। उपनिष्दकाल के क्रान्तिकारी अमर संदेशों को भुलाया नहीं जा सकता है। यथा–‘उत्तिष्ठित् जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’