2.22. भारत में 1967 के चुनावों के परिणामों को राजनीतिक भूचाल क्यों कहा जाता है?
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लोकसभा चुनाव 1967: बदलाव की बयार, कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती सन 1967 में हुए चौथे आम चुनाव से भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत हुई. 1962 से 1967 के बीच जो कुछ हुआ उसकी गूंज लम्बे समय तक देश की राजनीति मे सुनी जाती रही.
Explanation:
देश की राजनीतिक फिजा में यह सवाल यद्यपि काफी पहले से तैरने लगा था कि नेहरू के बाद कौन, लेकिन पहली बार इस सवाल से देश का सीधा सामना हुआ. पहली बार देश को दो बड़े युद्धों का सामना करना पड़ा. पहले चीन से और फिर पाकिस्तान से. 1962 के आम चुनाव के कुछ महीनों बाद ही अक्टूबर 1962 में भारत-चीन युद्ध हुआ. यह एकतरफा युद्ध था. चीन के हाथों भारत को करारी शिकस्त खानी पड़ी.
चीन से मिले धोखे से नेहरू का हिंदी-चीनी भाई-भाई का सपना चूर-चूर हो गया था. सारा देश स्तब्ध और मायूस था. नेहरू का सिर शर्म से झुक गया था. इतिहास में ऐसी पराजय का कोई उदाहरण नहीं था. भारतीय सेना जिस तरह पीछे हटी थी उससे सबको सदमा लगा. विरोधियों ने नेहरू की बोलती बंद कर दी थी. नेहरू भी इस सदमे से उबर नहीं पाए और युद्ध के डेढ़ साल के भीतर ही उनका निधन हो गया. 1964 में उनकी मृत्यु के बाद गुलजारीलाल नंदा कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने और फिर चंद दिनों बाद नेहरू के उत्तराधिकारी के तौर पर देश की बागडोर लालबहादुर शास्त्री के हाथों में आ गई. फिर 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ. सोवियत संघ के हस्तक्षेप से युद्घ विराम और ताशकंद समझौता हुआ. ताशकंद में ही शास्त्री की रहस्यमय हालात में मृत्यु हो गई और 1966 में इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनीं.
देश चलाना इंदिरा गांधी के लिए भी नया अनुभव था. 1962 के आम चुनाव के बाद कुछ संसदीय सीटों के लिए उपचुनाव हुए थे. 1963 में समाजवादी दिग्गज डॉ. राममनोहर लोहिया फर्रुखाबाद से उपचुनाव जीतकर पहली बार लोकसभा में पहुंचे थे. इसी तरह स्वतंत्र पार्टी के सिद्धांतकार मीनू मसानी गुजरात की राजकोट सीट से जीतकर लोकसभा पहुंचे थे.
कांग्रेस की सीटें भी घटीं और वोट भी
इस चुनाव मे लोकसभा की कुल सीटें 494 से बढ़ाकर 520 कर दी गई थी. बतौर मतदाता करीब 25 करोड़ लोगों ने इस चुनाव को देखा. इसमें करीब 13 करोड़ पुरुष और 12 करोड़ महिलाएं थीं. इस चुनाव मे 15 करोड़ 27 लाख लोगों ने मतदान किया था यानी मतदान का प्रतिशत करीब 61 रहा. चुनाव नतीजे चौंकाने वाले रहे. कांग्रेस को करारा झटका लगा. उसे स्पष्ट बहुमत तो मिल गया लेकिन पिछले चुनाव के मुकाबले लोकसभा में उसका संख्या बल काफी कम हो गया.
पिछले तीनों आम चुनावों में कांग्रेस को करीब तीन चौथाई सीटें मिलती रहीं लेकिन इस बार उसके खाते में मात्र 283 सीटें ही आईं यानी बहुमत से मात्र 22 सीटें ज्यादा. उसे प्राप्त वोटों के प्रतिशत में भी करीब पांच फीसदी की गिरावट आई. कांग्रेस को 1952 में 45 फीसदी, 1957 में 47.78 फीसदी और 1962 में 44.72 फीसदी वोट मिले थे पर 1967 मे उसका वोट घटकर 40.78 फीसदी रह गया. आमतौर पर उसके दो-तीन प्रत्याशियों की जमानत जब्त होती रही थी, लेकिन 1967 मे उसके सात उम्मीदवारों को जमानत गंवानी पड़ी. गुजरात, राजस्थान और ओडिशा में स्वतंत्र पार्टी ने उसे झटका दिया तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दिल्ली मे जनसंघ ने. उसे बंगाल और केरल में कम्युनिस्टों से भी कड़ी चुनौती मिली.
इंदिरा, लोहिया, जॉर्ज, रवि राय पहुंचे लोकसभा में : 1967 का चुनाव जीत कर कई दिग्गज पहली बार लोकसभा में पहुंचे थे. इंदिरा गांधी, जॉर्ज फर्नांडिस, रवि राय, नीलम संजीव रेड्डी, युवा तुर्क रामधन आदि इसी श्रेणी में शामिल थे. इंदिरा गांधी रायबरेली से जीतीं, जहां से पहले उनके पति फिरोज गांधी जीतते थे. प्रखर समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया 1963 में फर्रुखाबाद से उपचुनाव जीते थे लेकिन 1967 में ही वे पहली बार आम चुनाव जीत कर लोकसभा पहुंचे. उत्तरप्रदेश की कन्नौज सीट से मात्र 471 मतों से उनकी जीत हुई थी.
कांग्रेस टूटी, सरकार अल्पमत में आई : इन चुनावों के दो साल बाद ही 1969 में कांग्रेस में पहली बार एक बड़ा विभाजन हुआ. 1967 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव के नतीजों ने इस विभाजन की आधार भूमि तैयार कर दी थी. मोरारजी भाई देसाई, के. कामराज, एस. निजलिंगप्पा, अतुल्य घोष, सदोबा पाटिल, नीलम संजीव रेड्डी जैसे कांग्रेसी दिग्गजों ने बगावत का झंडा बुलंद किया और महज दो साल में ही इंदिरा सरकार अल्पमत मे आ गई.