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: जन्मभूमि की महिमा
महेन्द्रगढ़ राज्य में राजा विजयप्रताप राज्य करते थे। जैसा नाम, वैसा काम। वह साहसी, उदार और पराक्रमी थे। आने वाले संकटों का डटकर मुकाबला करते थे।
एक बार राजा विजयप्रताप को एक अनोखा पक्षी भेंट में मिला। पक्षी इतना खुबसूरत था कि राजा व सभासद वाह! वाह! कह उठे। वह पक्षी जब गाता था तो सब काम भूलकर उसके गीत सुनने में लीन हो जाते थे। राजा ने मंत्री को आदेश दिया कि पक्षी के लिए सोने का पिंजड़ा बनाया जाए ।
उसमें खरगोश की खाल के नरमनरम रोये बिछाए जाएं और राजा की रसोई से पक्षी के लिए भोजन की व्यवस्था की जाए। वह सुंदर पक्षी को यहां इतना सम्मान व आराम मिले, जितना और कहीं भी, कभी न मिला हो। यहां रहकर वह अपने मधुरगान से हमें रसपान कराए।
राजा विजयप्रताप पक्षी की स्वरलहरी का अमृतपान करते और उसके गुण की प्रशंसा करते नहीं थकते। कहते, “इसके गायन के आगे तो तीनों लोक फीके नजर आते हैं।” अचानक एक दिन पक्षी उदास हो गया। उसने गीत गाना बंद कर दिया।
यह तो खुली हवा में रहने का आर्ट है। यहां महल में इसे घुटन होती होगी। विचार करते हुए राजा ने पिंजड़े को बाग में टांगने का आदेश दिया। राजा का यह बाग संसार में सबसे सुंदर था। परंतु पक्षी यहां भी चुप रहा। राजा विजयप्रताप विचार में पड़ गया, अब किस बात की कमी है? उसने महल के विद्वानों को बुलाकर उनकी राय मांगी और सबकी राय सुनकर आदेश दिया कि पिंजड़े को खुले वन में ले जाकर टांग दो।
परंतु पक्षी वहां भी मौन रहा। मंत्री ने राजा विजयप्रताप को राय दी कि “पिंजड़े के पक्षी को देश-देशांतर में घुमाइए। शायद कहीं यह पंछी गाने लगे।”
राजा देशाटन पर निकल पड़ा। पिंजड़े के साथ देश के कोनेकोने में गया। आखिर एक रात वे एक पहाड़ी क्षेत्र में रुके। यहां दूरदूर तक फैली पर्वत मालाएं और उनकी तलहटी में फैले हरेभरे खेत थे। फलफूलों से लदे वृक्षों की भरमार थी।
निकट ही कलकल करती नदी बहती थी। पहाड़ी नदीनालों और झरनों की आवाज मधुर संगीत सुनाती-सी लगती थी। यही पिंजड़ा एक वृक्ष की डाल पर टांगा गया। प्रहरी तैनात करके सब सो गए। पौ फटने लगी तो पक्षी सहसा फड़का और अपने पंख फैलाकर उन्हें चोंच से साफ करने लगा। यह देखकर प्रहरी ने राजा विजयप्रताप को जगाया।
उसी क्षण दूर क्षितिज से लाल सूरज ऊपर उठता दिखाई दिया। पक्षी तेजी से उड़ा और पिंजड़े के तारों से टकरा कर गिर पड़ा। फिर उसने चारों ओर उदास दृष्टि से देखा और हौले से अपना गीत छेड़ा।
गीत सुनकर उसके जैसे ही सैकड़ों पक्षी चारों दिशाओं में उड़कर एकत्रित हो गए और वे भी पिंजड़े के पक्षी की तरह ही गीत गाने लगे। गीत के स्वर उदास थे। “तो यहां का है, हमारा यह सुंदर पक्षी। यहां इसकी जन्मभूमि है” राजा विजयप्रताप विचारमग्न होते हुए बोला।
उसके चेहरे पर भी उदासी छा गई। उसे भी अपनी राजधानी की याद हो आई जिसे छोड़े। हुए पूरे बारह माह हो गए थे। “पिंजड़ा खोल दो और पक्षी को आजाद कर दो।” राजा ने आदेश दिया।
पिंजड़े से आजाद होते ही सुंदर पक्षी ने फिर गाना प्रारंभ किया। अन्य सभी पक्षी भी गाने लगे। स्वतन्त्रता और जन्मभूमि प्राप्त करने की खुशी में पक्षी मस्ती से गा रहे थे। तब राजा विजयप्रताप के मुंह से अनायास ही निकल पड़ा, यह है जन्मभूमि की महिमा, स्वतन्त्रता का आनंद!! जहां जन्म होता है, बस वहीं प्रसन्नता के गीत गाए जा सकते हैं।”
महेन्द्रगढ़ राज्य में राजा विजयप्रताप राज्य करते थे। जैसा नाम, वैसा काम। वह साहसी, उदार और पराक्रमी थे। आने वाले संकटों का डटकर मुकाबला करते थे।
एक बार राजा विजयप्रताप को एक अनोखा पक्षी भेंट में मिला। पक्षी इतना खुबसूरत था कि राजा व सभासद वाह! वाह! कह उठे। वह पक्षी जब गाता था तो सब काम भूलकर उसके गीत सुनने में लीन हो जाते थे। राजा ने मंत्री को आदेश दिया कि पक्षी के लिए सोने का पिंजड़ा बनाया जाए ।
उसमें खरगोश की खाल के नरमनरम रोये बिछाए जाएं और राजा की रसोई से पक्षी के लिए भोजन की व्यवस्था की जाए। वह सुंदर पक्षी को यहां इतना सम्मान व आराम मिले, जितना और कहीं भी, कभी न मिला हो। यहां रहकर वह अपने मधुरगान से हमें रसपान कराए।
राजा विजयप्रताप पक्षी की स्वरलहरी का अमृतपान करते और उसके गुण की प्रशंसा करते नहीं थकते। कहते, “इसके गायन के आगे तो तीनों लोक फीके नजर आते हैं।” अचानक एक दिन पक्षी उदास हो गया। उसने गीत गाना बंद कर दिया।
यह तो खुली हवा में रहने का आर्ट है। यहां महल में इसे घुटन होती होगी। विचार करते हुए राजा ने पिंजड़े को बाग में टांगने का आदेश दिया। राजा का यह बाग संसार में सबसे सुंदर था। परंतु पक्षी यहां भी चुप रहा। राजा विजयप्रताप विचार में पड़ गया, अब किस बात की कमी है? उसने महल के विद्वानों को बुलाकर उनकी राय मांगी और सबकी राय सुनकर आदेश दिया कि पिंजड़े को खुले वन में ले जाकर टांग दो।
परंतु पक्षी वहां भी मौन रहा। मंत्री ने राजा विजयप्रताप को राय दी कि “पिंजड़े के पक्षी को देश-देशांतर में घुमाइए। शायद कहीं यह पंछी गाने लगे।”
राजा देशाटन पर निकल पड़ा। पिंजड़े के साथ देश के कोनेकोने में गया। आखिर एक रात वे एक पहाड़ी क्षेत्र में रुके। यहां दूरदूर तक फैली पर्वत मालाएं और उनकी तलहटी में फैले हरेभरे खेत थे। फलफूलों से लदे वृक्षों की भरमार थी।
निकट ही कलकल करती नदी बहती थी। पहाड़ी नदीनालों और झरनों की आवाज मधुर संगीत सुनाती-सी लगती थी। यही पिंजड़ा एक वृक्ष की डाल पर टांगा गया। प्रहरी तैनात करके सब सो गए। पौ फटने लगी तो पक्षी सहसा फड़का और अपने पंख फैलाकर उन्हें चोंच से साफ करने लगा। यह देखकर प्रहरी ने राजा विजयप्रताप को जगाया।
उसी क्षण दूर क्षितिज से लाल सूरज ऊपर उठता दिखाई दिया। पक्षी तेजी से उड़ा और पिंजड़े के तारों से टकरा कर गिर पड़ा। फिर उसने चारों ओर उदास दृष्टि से देखा और हौले से अपना गीत छेड़ा।
गीत सुनकर उसके जैसे ही सैकड़ों पक्षी चारों दिशाओं में उड़कर एकत्रित हो गए और वे भी पिंजड़े के पक्षी की तरह ही गीत गाने लगे। गीत के स्वर उदास थे। “तो यहां का है, हमारा यह सुंदर पक्षी। यहां इसकी जन्मभूमि है” राजा विजयप्रताप विचारमग्न होते हुए बोला।
उसके चेहरे पर भी उदासी छा गई। उसे भी अपनी राजधानी की याद हो आई जिसे छोड़े। हुए पूरे बारह माह हो गए थे। “पिंजड़ा खोल दो और पक्षी को आजाद कर दो।” राजा ने आदेश दिया।
पिंजड़े से आजाद होते ही सुंदर पक्षी ने फिर गाना प्रारंभ किया। अन्य सभी पक्षी भी गाने लगे। स्वतन्त्रता और जन्मभूमि प्राप्त करने की खुशी में पक्षी मस्ती से गा रहे थे। तब राजा विजयप्रताप के मुंह से अनायास ही निकल पड़ा, यह है जन्मभूमि की महिमा, स्वतन्त्रता का आनंद!! जहां जन्म होता है, बस वहीं प्रसन्नता के गीत गाए जा सकते हैं।”
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