2. मुरली तऊ गुपालहिं भावति।
सुनि री सखी जदपि नंदलालहिं, नाना भाँति नचावति।
राखति एक पाई ठाढ़ौ करि, अति अधिकार जनावति।
कोमल तन आज्ञा करवावति, कटि टेढ़ी है आवति।
अति आधीन सुजान कनौड़े, गिरिधर नार नवावति।
आपुन पौढ़ि अघर सज्जा पर, कर पल्लव यलुटावति।
भृकुटी कुटिल, नैन नासा-पुट, हम पर कोप-करावति।
सूर प्रसन्न जानि एको छिन, घर तें सीस डुलावति॥
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इस पद में सूरदास जी ने कृष्ण के ऊपर मुरली के प्रभाव और उससे गोपियों को मुरली से होने वाली स्वाभाविक जलन का बड़ा ही स्वाभाविक चित्रा प्रस्तुत किया है। सूरदास जी के पद में एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि हे सखी!
मुरली श्री कृष्ण को अनेक प्रकार से नाच नचाती है फिर भी मुरली श्री कृष्ण की सबसे अधिक प्रिय है।
मुरली उन्हें एक पैर पर खड़ा करके रखती है और अपना अत्यधिक अधिकार उन पर जताती है। वह कृष्ण के कोमल तन से अपने आज्ञा का पालन करवाती है, जिससे श्री कृष्ण की कमर टेढ़ी हो आती है।
यही नहीं अत्यधिक आधीन किसी दास की तरह वह कृष्ण की गर्दन को झुकवाती है। स्वयं उनके होटो पर विराजमान होकर उनके कोमल हातों से अपने पैरों को दबवाती है। टेढ़ी भृकुटी, बाँके नेत्राों और फड़कते हुए नासिका पुटों से हम पर क्रोध करवाती हैं
सूरदास जी ने गोपियाँ के माध्यम से अपने इस पद में कहा है की मुरली श्री कृष्ण को एक क्षण के लिए भी प्रसन्न जानकर धड़ से सिर हिलवाती हैं अर्थात नहीं, नहीं का संकेत करवाती है।
गोपियों को श्री कृष्ण सर्वाधिक प्रिय हैं, पर श्री कृष्ण को कोई और प्रिय हो। यह उनके लिए अत्यधिक असहनीय विषय है इसीलिए वे श्री कृष्ण के मुरली के प्रति चिंतित हैं और उनका ऐसा होना स्वाभाविक भी है।