(2) मन की मन ही माँझ रही। कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही। अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही। अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही। चाहति हुती गुहारि जितहिं तैं, उत तें धार बही। 'सूरदास' अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।।
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