2 मनुष्य अपने अनुभव से बहुत कुछ सीखता है। अपने बचपन के दिनों की किसी ऐसी सुखद घटना का वर्णन कीजिए जिसने आपको जीवन में नई सीख दी हो, यह सीख आपके भावी जैवन में नई सीख आपके भावी जीवन में कैसे उपयोगी सिद्ध होगी या हो सकती है इसके विषय में विवरण दीजिए ? in more than 500 words
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Answer: मनुष्य अपने अनुभव से बहुत कुछ सीखता है।
मानव अनुभव से बहुत कुछ सीखता है। इसीलिए अनुभव को पुस्तकीय ज्ञान से ऊपर माना जाता है। हमारे जीवन में मधुर-कटु- दोनों प्रकार के अनुभव पाए जाते हैं। कभी-कभी हमारा अनुभव इतना कड़वा हो जाता है कि हम स्वयं अपने ऊपर हँसते हैं। ऐसा ही एक कटु अनुभव मेरे जीवन में भी हुआ है। जून महीने के दूसरे रविवार की बात है। हम सभी परिजन अपने घर में छुट्टी का आनंद ले रहे थे। बड़े भैया भाभी और उनका आठ मास का शिशु करण भी हमारे बीच थे। वे कल रात ही आए थे ताकि रविवार का आनंद लिया जा सके। प्रातः के नौ बजने वाले थे। हम सभी चने पूरियाँ खाकर गप्पें हाँक रहे थे कि तभी टांडा से हमारे मामा जी का फ़ोन आ गया। फोन पिता जी ने ही सुना। सुनते ही वे गंभीर हो गए। फिर हमारे पास आकर कहने लगे कि उन्हें अभी टांडा जाना होगा। हम डर गए कि कहीं कोई अनहोनी तो नहीं घट गई। तभी उन्होंने विस्तार सहित बताया जिसका सार यह था कि सपना दीदी के लिए कोई वर देखने अभी जाना होगा। लड़का अच्छा है। वह बंगलूरू से आया तो किसी अन्य कन्या को देखने के लिए था परंतु कन्या ने उसे नापसंद कर डाला। अतः वह कोई और कन्या देखकर ही जाना चाहता है। उसके पास केवल तीन बजे तक का समय है। तीन बीस पर उसकी गाड़ी छूट जाएगी। भैया ने कहा कि यह तो शुभ समाचार है। उनके पास जीप है। एक घंटे में ही टांडा पहुँच जाएँगे। सुनते ही सभी तैयारी करने लगे। सपना ब्यूटी क्लिनिक जाने का हठ कर बैठी तो भैया पहले उसे छोड़ने चले गए। ग्यारह बजे सभी तैयार खड़े थे। भैया सपना को लेकर ग्यारह बीस पर आए तो हम सभी जीप में सवार होकर टांडा की ओर चल पड़े। गलियाँ पार करते ही भैया ने घड़ी देखकर कहा कि हम लोग साढ़े बारह बजे तक अवश्य पहुँच जाएँगे। अभी भोगपुर से थोड़ा आगे निकले थे कि जीप रोकनी पड़ी। मैं पीछे बैठा करण के साथ अठखेलियाँ कर रहा था। मैंने पूछा तो भैया बोले आगे भारी जाम-सा लगा दिखाई दे रहा है। मैंने करण भाभी की गोद में डाला और नीचे उतर गया। इधर-उधर पूछा तो यही उत्तर मिला कि आगे रास्ता जाम है। कारण किसी को पता न था। मैं आगे बढ़ा। लगभग एक किलोमीटर पैदल चलने के बाद पता चला कि परसों की भारी बरसात में पुल बह गया है। दोनों ओर आर-पार जाने के लिए पैदल चलना पड़ेगा। इधर की बसें उधर की बसों को अपनी सवारी दे रही हैं और उधर की बसें इधर की बसों को। निजी वाहन या तो लौट जाते हैं। या फिर रास्ता खुलने की प्रतीक्षा में हैं। मैंने काम पर लगे विशाल श्रमिक-समूह में से एक से पूछा कि कब तक रास्ता खुल सकेगा। इस पर वह बोला कि कल तक तो खुल ही जाएगा। शाम तक भी खुल सकता है। मैं यह अप्रिय समाचार लेकर जीप की ओर उदास मन व ढीले कदमों से लौटने लगा। समाचार सुनकर भैया ने कहा कि वे मामा जी को फोन कर देते हैं कि विवशता में लौटना पड़ रहा है। फोन पर मामाजी ने कहा कि लड़का हाथ से निकल सकता है। ऐसा वर शायद फिर सपना के लिए सपना ही हो जाए। अतः हम लोग जैसे-तैसे सपना को जरूर पहुँचवाएँ, भले ही बस द्वारा। गीली कच्ची मिट्टी, कीचड़, रेत और पत्थरों से जूझते हुए हम लोग पैदल ही खड्ड के पार की ओर चलने लगे। जीप एक सरदार जी के मकान के आगे खड़ी कर दी थी। खड्ड पार करने में हमारे पसीने छूट गए। सभी के पास सामान था। भाभी के पास करण था। चार कदम चलकर ही प्यास लग जाती। पानी की बोतलें, करण के दूध की बोतल और फल आदि सब पिछले एक घंटे में समाप्त हो चुका था। खड्ड के पार जाकर हम उधर टांडा की ओर लौटने वाली बस की प्रतीक्षा करने लगे। कड़कती धूप, खड्ड का पानी। दूर तक छायादार पेड़ तो थे परंतु वे सब बरसात में बह गए थे। करण चीखने-चिल्लाने लग गया। एक भली स्त्री ने उसके लिए कुछ बिस्कुट दिए तो वह थोड़ी देर के लिए शांत हुआ। खचाखच भरी बस में सवार होना हिमालय पर चढ़ने के समान था। फिर भी हमने हिम्मत न हारी। जैसे-तैसे अपने आपको ढूंस-ठासकर टांडा पहुँचे। सभी बदहवास थे। उतरते ही पानी पीया। तभी एक बड़ी कार का ड्राइवर हमारे पास आया और गौर से देखकर पूछने लगा “जालंधर से आए हैं। भैया ने कहा-” जी, हाँ।” उसने कहा – ” चलिए, साहब ने गाड़ी भेजी है।” कार में सवार होकर मानो हम धन्य हो गए। कार चलती गई। तभी मैंने भैया से पूछा- “कितना लम्बा रास्ता है?” भैया बोले- “आराम से बैठो, घर जाकर पूछना जो भी पूछना है।” हमारे होश तब गुम हुए जब कार एक अज्ञात भवन के आगे रुकी और ड्राइवर बोला-“लीजिए, आ गया कटारिया साहब का महल।’ हमने स्वयं को ठगा-सा महसूस किया। वह मामा जी का नहीं, किसी और का घर था। बिना पूछे कार में बैठना हम सभी शिक्षितों को मूर्ख सिद्ध कर गया। उस दिन के बाद हम फूंक-फूंककर कदम रखने लगे। मन के हारे हार है मन के जीते जीतl
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मानव जीवन घटनाओं का प्रतिफल है। जन्म से अन्तिम श्वास तक निरन्तर उसे घटनाओं से दो-चार होना पड़ता है। प्रत्येक घटना से उसे कोई न कोई शिक्षा या अनुभव प्राप्त होता है। प्रत्येक घटना मानव के व्यक्तित्व एवं जीवन पर गहरा प्रभाव डालती है। सूर्योदय से पूर्व उषाकाल से लेकर रात के अन्तिम प्रहर तक वह कदम-कदम पर कुछ न कुछ सीखता है। यही कारण है कि समाज के समक्ष उपस्थित व्यक्ति ऐसी ही अनेक घटनाओं और अनुभवों का प्रतिफल होता है। ये घटनाएँ – सुखद एवं दुःखद दोनों ही रूप में घटित होती हैं। सुखद घटना जहाँ हमारे जीवन में उत्साह एवं उल्लास का संचार करती है वही दुःखद घटना उसे निरुत्साहित एवं आत्म-विश्वास से हीन बनाती है। यहाँ मैं जीवन की उस सुखद घटना का वर्णन कर रहा हूँ, जिसने मेरे जीवन में एक नवीन उल्लास एवं उत्साह का संचार किया तथा आत्म-विश्वास में दृढ़ता की वृद्धि की।
घटना उन दिनों की है जब मैं छठवीं कक्षा का छात्र था। उन दिनों मेरे मन और मस्तिष्क पर गणित विषय का कुछ ऐसा आतंक था कि उस विषय का नाम ही मुझे पसीने-पसीने कर देता था। कक्षा में गणित के चक्र (घण्टे) में मैं सबसे पीछे ही स्थान ग्रहण करता था। इसका एक कारण था-विषय के अध्यापक का शुष्क एवं कठोर स्वभाव। वह अक्सर कक्षा में प्रवेश के साथ ही चाक तथा श्याम-पट (ब्लैक बोर्ड) का आधार लेकर शिक्षण-कार्य आरम्भ कर देते थे। अगर कोई छात्र किसी भी कारण कक्षा में विलम्ब से प्रवेश करता अथवा विषय के अध्ययन में असावधान दृष्टिगत् होता तो वे बहुत क्रोधित हो जाते थे। सामान्यतः वह छात्र की विषयगत दुर्बलता का कारण ज्ञात करने के स्थान पर उसका उपहास करते थे। इतना ही नहीं विषय के मध्य प्रश्न या शंका समाधान की प्रार्थना को वे ठुकरा दिया करते थे। इस प्रकार मेरे जैसे सामान्य छात्र के मन में उनके प्रति दूरी बढ़ती ही गई। किन्तु एक दिन………..।
वार्षिक परीक्षा आरम्भ होने में एक माह का समय शेष था। मेधावी एवं परिश्रमी छात्र आत्म-विश्वास से पूर्ण सतत् परिश्रम में व्यस्त थे। मुझ जैसे छात्र निराशा के गहन उदधि में निमग्न हो रहे थे। एक दिन दैवी-प्रेरणा से मैं कक्षा के बाद उनसे, अध्यापक-कक्ष में मिला। मैंने विषय-सम्बन्धी परेशानी निवेदन की। उन्होंने मुझे उसी दिन से अपने घर आने का सुझाव दिया। मैं प्रतिदिन नियम से उनके घर गया। कुछ दिन तो उन्होंने मुझसे सूत्र रटने को कहा। इसके पश्चात् उनसे सम्बन्धित प्रश्न हल करने में मेरा मार्ग-दर्शन किया। एक महीने की लगन एवं कठोर परिश्रम ने मेरे आत्म-विश्वास को फिर से जाग्रत किया। उस दिन के बाद तो जैसे मेरा जीवन ही बदल गया। मेरे मन में गणित विषय के प्रति आतंक का भाव तथा यह विचार कि मैं इस विषय में कभी सफल नहीं हो सकता, सदैव के लिए खत्म हो गया।
आज मैं कक्षा दशम का छात्र हूँ। आज गणित के कारण ही मैं जीवन में कुछ कर दिखाने में सफल होने के आत्म-विश्वास से पूर्ण हूँ। इतना ही नहीं अब तो विज्ञान एवं कम्प्यूटर वर्ग में भी मुझे किसी प्रकार का भय अनुभव नहीं होता है। यह सब आदरणीय उन गणित अध्यापक जी की अनुकम्पा एवं आशीर्वाद का परिणाम है। उस दिन मैं साहस कर अपने गणित के उन शिक्षक से न मिला होता तो शायद मैं इस स्थिति में न होता। अन्त में मैं गर्व से कह सकता हूँ कि उस एक घटना ने मेरे जीवन में असीमित सुख, शान्ति एवं आत्म-विश्वास भर दिया। इसके लिए आज भी मेरा मन श्रद्धेय उन गणित अध्यापक जी के चरणों में नत है।
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