Hindi, asked by idris81, 1 year ago


2. प्रकृति कभी किसी के साथ भेदभाव नही करती। प्रकृति द्वारा इस पृथ्वी पर जितने भी संसाधन प्रदान
किए गए हैं, वे सभी निःशुल्क हैं और उनका उपयोग सभी कर सकते हैं।
कविता के आधार पर इस बात को 400-450 शब्दों में सिद्ध कीजिए।​

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Answered by shishir303
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हम ब्रह्माण्ड के सबसे सुंदर ग्रह पर निवास करते हैं। जिसे हम अनेक नामों से पुकारते हैं। जैसे कि पृथ्वी, धरा, धरती आदि। हमारी इस धरती की सुंदरता  ‘प्रकृति’ की वजह से है। जैसे एक बच्चा जन्म लेता और अपनी माँ की गोद और उसके आँचल के साये में पलकर बड़ा होता है वैसे ही मानव भी इस धरती पर ‘प्रकृति’ की गोद में और उसके आँचल के साये में पलकर बड़ा होता है इस कारण ‘प्रकृति’ हमारे लिये ‘माँ’ के समान ही है।

‘प्रकृति’ हमें वो सब देती है जो एक ‘माँ’ अपने बच्चे को देती है। ‘माँ’ बिना किसी स्वार्थ को अपने बच्चे पर अपनी सब कुछ न्योछावर कर देती है और बदले में कुछ भी नही मांगती बस ये आशा करती है कि बच्चा समझदार होने पर उसका ध्यान रखे।

जैसे एक माँ अपने सारे बच्चों में कोई भेद नही करती और सबको अपना सबकुछ बिना किसी भेद-भाव के प्रदान करती है, उसके लिये सारे बच्चे बराबर हैं, वैसे ही प्रकृति भी अपने संसाधनों के वितरण में कोई भेदभाव नही करती है, पृथ्वी पर उपस्थित प्रत्येक प्राणी उसके बच्चे के समान है, वो बिना किसी भेदभाव के हर प्राणी को अपना सबकुछ दे देती है।

‘प्रकृति’  निःस्वार्थ भाव से हमें अपना सबकुछ दे देती है। ये रोशनी, हवा, पानी, नदी, समुद्र, झरने, पहाड़, पेड़-पौधे, मिट्टी, सर्दी, गर्मी, बरसात सबकुछ ‘प्रकृति’ हमें बिना किसी भेद-भाव के प्रदान करती है।  

‘प्रकृति’ हमें अपने सारे संसाधन उपलब्ध कराती है एक ‘माँ’ की तरह लालन-पालन करती है। जैसे कोई ‘माँ’अपने बच्चों में कोई भेद नही करती वैसे ‘प्रकृति’ भी अपने संसाधन हमें देने में कोई भेद नही करती है।

दुख की बात ये है कि हम मानव स्वार्थी हो गये हैं। हम ‘प्रकृति’ द्वारा हम पर किये गये उपकारों को भूल जाते हैं। प्रकृति जितना हमें देती है बदले में हम उसका उतना ध्यान नही रखते है। हम प्रकृति के संसाधनों का पूरी तरह से दोहन कर तो लेते हैं पर ये इस बात की चिंता नही करते कि ये संसाधन सीमित मात्रा में हैं और इनका इस तरह से उपयोग करें ये संसाधन सदैव कायम रहें।

हम मानव ही प्रकृति का स्वरूप बिगाड़ने में लगे हुये हैं। हम ये नही देखते कि हमें भी अपनी इस प्रकृति रूपी ‘माँ’ का ध्यान रखना है ताकि ये हमेशा हम अपनी स्नेह बरसाती रहे।

बड़े दुख की बात है कि मानव द्वारा तकनीक आदि के विकास के कारण हमें कृत्रिम जीवनशैली की तरफ ज्यादा अग्रसर हो गयें हैं और अपनी तथाकथित विकासरूपी महत्वाकांक्षाओं के कारण के कारण प्रकृति को लगातार नुकसान पहुंचा रहे हैं।

इसी कारण ये ‘प्रकृतिरूपी माँ’ भी हम पर कुपित हो रही है और जिसके कारण असामान्य व अस्वभाविक भौगोलिक घटनायें बढ़ती जा रही हैं।

अब समय आ गया है कि मानव संभल जाये और वह अपनी इस ‘प्रकृतिरूपी माँ’ का मूलस्वरूप न बिगाड़े और एक संतान की तरह उसका पूरा ध्यान रखे नही तो एक दिन ऐसा आयेगा कि ‘प्रकृति’ हम पर पूरी तरह रुष्ट हो जायेगी तब हमारे पास बचने का भी अवसर नही होगा।

जिस प्रकार प्रकृति हमें अपना सबकुछ देने में कोई भेदभाव नही करती उसी प्रकार हमें भी प्रकृति के संरक्षण के लिये कोई भेदभाव नही करना चाहिये।

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