2. शौच नामक नियम का क्या अभिप्राय है?
3. सन्तोष नामक नियम का अर्थ तथा इसके पालन करने के
बताइए?
4. तप की व्याख्या कीजिए।
5. स्वाध्याय के दो अर्थ बताइए।
6. ईश्वरभक्ति आपके अपने कर्म से कैसे होती है?
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Answer:
2)भावार्थ : शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान ये पांच नियम है। 1. शौच : मूलत: शौच का तात्पर्य है पाक और पवित्र हो जाओ, तो आधा संकट यूं ही कटा समझो। शौच अर्थात शुचिता, शुद्धता, शुद्धि, विशुद्धता, पवित्रता और निर्मलता।
3)संतोष की सिद्धि के लिए क्षुब्ध और निराश करने वाली स्थितियों से बचने का परामर्श दिया गया है। स्थितियों का एक निहितार्थ उन व्यक्तियों से भी संबंधित है, जो हमारे मन, सोच और संकल्प को प्रभावित करते हैं। ऐसे वातावरण को छोड़ देना चाहिए या उससे बचना चाहिए, जो आपको क्षुब्ध करता हो और मन में निराशा भरता हो।
4)तपस् या तप का मूल अर्थ था प्रकाश अथवा प्रज्वलन जो सूर्य या अग्नि में स्पष्ट होता है। [1] किंतु धीरे-धीरे उसका एक रूढ़ार्थ विकसित हो गया और किसी उद्देश्य विशेष की प्राप्ति अथवा आत्मिक और शारीरिक अनुशासन के लिए उठाए जानेवाले दैहिक कष्ट को तप कहा जाने लगा।
5) स्वयं अपने विवेक से किया गया अध्ययन या अनुशीलन 2. शास्त्रों का अध्ययन; वेदों आदि प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन।
6)अपने आप को ही ब्रह्म मानने वाला ज्ञानी भी अंत में माया से हारकर सगुण साकार भगवान की शरण में जाता है। तभी भगवत्कृपा से उसे वास्तविक ज्ञान प्राप्त होता है और उसकी माया निवृत्ति होती है। ईश्वर भक्ति युक्त कर्म ही कर्मयोग है अर्थात नित्य निरंतर प्रभु से प्रेम करते हुए संसार में अनासक्त भाव से कर्म करना ही कर्मयोग है।
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