Hindi, asked by afiya0129, 10 months ago

20 sanskrit slogas with hindi meaning​

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Answered by ItzSnowFlake
3

Answer:

नास्ति बुद्धिमतां शत्रुः ॥

 भावार्थ :

बुद्धिमानो का कोई शत्रु नहीं होता ।

विद्या परमं बलम ॥

 भावार्थ :

विद्या सबसे महत्वपूर्ण ताकत है ।

सक्ष्मात् सर्वेषों कार्यसिद्धिभर्वति ॥

 भावार्थ :

क्षमा करने से सभी कार्ये में सफलता मिलती है ।

न संसार भयं ज्ञानवताम् ॥

 भावार्थ :

ज्ञानियों को संसार का भय नहीं होता ।

वृद्धसेवया विज्ञानत् ॥

 भावार्थ :

वृद्ध - सेवा से सत्य ज्ञान प्राप्त होता है ।

सहायः समसुखदुःखः ॥

 भावार्थ :

जो सुख और दुःख में बराबर साथ देने वाला होता है सच्चा सहायक होता है ।

आपत्सु स्नेहसंयुक्तं मित्रम् ॥

 भावार्थ :

विपत्ति के समय भी स्नेह रखने वाला ही मित्र है ।

मित्रसंग्रहेण बलं सम्पद्यते ॥

 भावार्थ :

अच्छे और योग्य मित्रों की अधिकता से बल प्राप्त होता है ।

सत्यमेव जयते ॥

 भावार्थ :

सत्य अपने आप विजय प्राप्त करती है ।

उपायपूर्वं न दुष्करं स्यात् ॥

 भावार्थ :

उपाय से कार्य कठिन नहीं होता ।

विज्ञान दीपेन संसार भयं निवर्तते ॥

 भावार्थ :

विज्ञानं के दीप से संसार का भय भाग जाता है ।

सुखस्य मूलं धर्मः ॥

 भावार्थ :

धर्म ही सुख देने वाला है ।

धर्मस्य मूलमर्थः ॥

 भावार्थ :

धन से ही धर्म संभव है ।

विनयस्य मूलं विनयः ॥

 भावार्थ :

वृद्धों की सेवा से ही विनय भाव जाग्रत होता है ।

अलब्धलाभो नालसस्य ॥

 भावार्थ :

आलसी को कुछ भी प्राप्त नहीं होता ।

आलसस्य लब्धमपि रक्षितुं न शक्यते ॥

 भावार्थ :

आलसी प्राप्त वस्तु की भी रक्षा नहीं कर सकता ।

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SRITI

Answered by vedangparth
1

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आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः |

नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ||

अर्थार्थ:- मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन उसका आलस्य है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र

नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |

अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम

पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।

अर्थार्थ:- अपमान करके दान देना, विलंब(देर) से देना, मुख फेर के देना, कठोर वचन बोलना और देने के बाद पश्चाताप करना| ये पांच क्रियाएं दान को दूषित कर देती हैं।

यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् !

तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि !!

अर्थार्थ:- वह व्यक्ति जो अलग अलग जगहों या देशो में घूमकर (पंडितों) विद्वानों की सेवा करता है, उसकी बुद्धि का विस्तार(विकास) उसी प्रकार होता है, जैसे तेल की बूंद पानी में गिरने के बाद फ़ैल जाती है|

श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन, दानेन पाणिर्न तु कंकणेन ,

विभाति कायः करुणापराणां, परोपकारैर्न तु चन्दनेन ||

अर्थार्थ:- कुंडल पहन लेने से कानों की शोभा नहीं बढ़ती, अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है | हाथ, कंगन धारण करने से सुन्दर नहीं होते, उनकी शोभा दान करने से बढ़ती हैं | सज्जनों का शरीर भी चन्दन से नहीं अपितु परहित में किये गये कार्यों से शोभायमान होता हैं।

यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् |

एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ||

अर्थार्थ:- जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता है|

परो अपि हितवान् बन्धुः बन्धुः अपि अहितः परः !

अहितः देहजः व्याधिः हितम् आरण्यं औषधम् !!

अर्थार्थ:- कोई अपरिचित व्यक्ति भी अगर आपकी मदद करे तो उसे अपने परिवार के सदस्य की तरह ही महत्व दे और अगर परिवार का कोई अपना सदस्य भी आपको नुकसान पहुंचाए तो उसे महत्व देना बंद कर दे. ठीक उसी तरह जैसे शरीर के किसी अंग में कोई बीमारी हो जाए, तो वह हमें तकलीफ पहुंचाती है, जबकि जंगल में उगी हुई औषधी हमारे लिए लाभकारी होती है|

पुस्तकस्था तु या विद्या,परहस्तगतं च धनम् ।

कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ।।

अर्थार्थ:- पुस्तक में रखी विद्या तथा दूसरे के हाथ में गया धन, ये दोनों ही ज़रूरत के समय हमारे किसी भी काम नहीं आया करते|

विद्या मित्रं प्रवासेषु,भार्या मित्रं गृहेषु च |

व्याधितस्यौषधं मित्रं, धर्मो मित्रं मृतस्य च ||

अर्थार्थ:- विदेश में ज्ञान, घर में अच्छे स्वभाव और गुणस्वरूपा पत्नी, औषध रोगी का ,तथा धर्म मृतक का सबसे बड़ा मित्र होता है |

सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् |

वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ||

अर्थार्थ:- अचानक आवेश(जोश) में आ कर बिना सोचे समझे कोई कार्य नहीं करना चाहिए | क्योंकि विवेक हीनता सबसे बड़ी विपत्तियों का कारण होती है | इसके विपरीत जो व्यक्ति सोच समझकर कार्य करता है, गुणों से आकृष्ट होने वाली माँ लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है |

येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः !

ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति !!

अर्थार्थ:- जिन मनुष्यों में न विद्या का निवास है, न मेहनत का भाव, न दान की इच्छा, और न ज्ञान का प्रभाव, न गुणों की अभिव्यक्ति और न धर्म पर चलने का संकल्प, वे मनुष्य नहीं, वे मनुष्य रूप में जानवर ही धरती पर विचरते हैं।

दयाहीनं निष्फलं स्यान्नास्ति धर्मस्तु तत्र हि ।

एते वेदा अवेदाः स्यु र्दया यत्र न विद्यते ॥

अर्थार्थ:- बिना दया के किये गए काम का कोई फल नहीं मिलता, ऐसे काम में धर्म नहीं होता| जहाँ दया नही होती वहां वेद भी अवेद बन जाते हैं|

अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः !

उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम् !!

अर्थार्थ:- निम्न कोटि के लोग सिर्फ धन की इच्छा रखते हैं, मध्यम कोटि का व्यक्ति धन और सम्मान दोनों की इच्छा रखता है, वहीँ एक उच्च कोटि के व्यक्ति के लिए सिर्फ सम्मान ही मायने रखता है, सम्मान धन से अधिक मूल्यवान है|

विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।

पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥

अर्थार्थ:- ज्ञान विनम्रता प्रदान करता है, विनम्रता से योग्यता आती है और योग्यता से धन प्राप्त होता है जिससे व्यक्ति धर्म के कार्य करता हैं और सुखी रहता है|

कार्यार्थी भजते लोकं यावत्कार्य न सिद्धति !

उत्तीर्णे च परे पारे नौकायां किं प्रयोजनम् !!

अर्थार्थ:- जब तक काम पूरे नहीं होते हैं, तब तक लोग दूसरों की प्रशंसा करते हैं. काम पूरा होने के बाद लोग दूसरे व्यक्ति को भूल जाते हैं| ठीक उसी तरह जैसे, नदी पार करने के बाद नाव का कोई उपयोग नहीं रह जाता है.

न चोरहार्य न राजहार्य न भ्रतृभाज्यं न च भारकारि !

व्यये कृते वर्धति एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् !!

अर्थार्थ:- न चोर चुरा सकता है, न राजा छीन सकता है, न इसका भाइयों के बीच बंटवारा होता है, और न हीं सम्भालना कोई भार है. इसलिए खर्च करने से बढ़ने वाला विद्या रूपी धन, सभी धनों से श्रेष्ठ है|

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