21वी सदी मे भारत की विदेश नीति समक्ष चुनौतिया
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आज मुझे विदेश मंत्रालय आईआईएस सेमिनार का उद्घाटन करते हुए तथा राजनयिकों, विद्वानों एवं विशेषज्ञों की इस शानदार सभा को संबोधित करने हुए अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है। विदेश मंत्रालय-आईआईएसएस विदेश नीति संवाद ने सामान्य स्तर से आरंभ करते हुए अब गतिशील मंच का रूप ले लिया है जिसमें भारत और युनाइटेड किंगडम के विद्वानों एवं विशेषज्ञों के बीच व्यापक आदान-प्रदान किया जा रहा हे।
मुझे जिस विषय पर बोलने के लिए कहा गया है, उस विषय की व्यापकता को ध्यान में रखते हुए मैंने अपने संबोधन को निम्नलिखित चरणों में बांटा है: सर्वप्रथम मैं विदेश नीति की प्राथमिकताओं तथा निरंतर वैश्विक हो रहे विश्व द्वारा आकार प्रदान किए जा रहे हमारे दृष्टिकोण पर चर्चा करूंगी। तदुपरान्त, मैं निम्नलिखित मुद्दों पर विशेष बल दूंगी – जलवायु परिवर्तन, परमाणु निरस्त्रीकरण और अप्रसार तथा आतंकवाद – जो आज इस सेमिनार के मुद्दे भी हैं। मैं अपने संबोधन का समापन भारत के पड़ोसी देशों पर दो शब्दों के साथ करना चाहूंगी।
हमारा गणतंत्र इस वर्ष 60 वर्षों का हो गया है। हमारी विदेश नीति भी लगभग इतनी ही पुरानी है। जैसे-जैसे हमारे देश का विकास हुआ वैसे-वैसे हमारी विदेश नीति का भी विकास हुआ और हमने तीव्र आर्थिक प्रगति, पड़ोस की स्थिति, स्वतंत्रता की प्राप्ति तथा वैश्विक बाजार के साथ हमारे एकीकरण, हमारी अंतरनिर्भरता के फलस्वरूप उत्पन्न चुनौतियों के साथ अपना सामंजस्य भी स्थापित किया। भारत ने हमेशा से एक बहुलवादी, लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में अपनी विविधता को प्रबंधित करने के लिए सफल मानकों का सृजन किया। जहां तक अंतिम पहलू का प्रश्न है, कुछ लोग इसे भारतीय प्रकरण की ताकत भी बोलते हैं।
भारत एक विशाल देश है, जो समग्रता, सहिष्णुता तथा शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के सार्वभौमिक मूल्यों का प्रतीक भी है। भारत की यह छवि नई नहीं है। वस्तुत: हमारे गणतंत्र की स्थापना के आरंभिक वर्षों से ही इस संबंध में जागरूकता बनी रही है और विविधता को प्रबंधित करने की हमारी योग्यता तथा बहुलवाद के प्रति हमारे सम्मान से भारत अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली में वैधता का एक स्रोत बन सकता है। ऐसा कुछ विद्वानों का कहना है।
21वी सदी मे भारत की विदेश नीति समक्ष चुनौती की विवेचना कीजिए।