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5. कोविड-19 के कारण हुए लॉकडाउन में छुट्टियां व्यतीत करने से सबंधिंधित कोई 10 दिन का
डायरी लेखन करें।
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ये बहुत पहले की बात है. मेरे पिता जी को इस बात की बड़ी फ़िक्र रहती थी कि मैं बातें नहीं करती. ये उन दिनों की बात है, जब मैं छोटी बच्ची थी. मैंने फिर से ख़ामोशी की चादर ओढ़ ली है.
अब मैं किसी हड़बड़ी में नहीं हूं. मैं आराम से बातें करती हूं. धीरे-धीरे बोलती हूं. एक बार में एक सच बयां करती हूं और बड़ी मोहब्बत से बातें करती हूं. मेरी आंखों से आंसू बहते रहते हैं और इन आंसुओं के ज़रिए शायद मैं अपनी ग़लतियों पर अफ़सोस ज़ाहिर करती हूं.
अप्रैल के महीने ने यूं भेष बदला है मानो इंतज़ार का दूसरा रूप है. मैं हर बात और हर इंसान की अनदेखी कर देती हूं. मैं फ़ोन को साइलेंट मोड पर रख देती हूं. वक़्त कितना ख़ूबसूरत लगता है न, जब वो ठहरा हुआ होता है. और, जैसा कि एक कवि ने कहा है, अप्रैल का महीना तो देखो, कितना निर्दयी है.
मेरे शहर में एक क़ब्रिस्तान उन लोगों के नाम कर दिया गया है, जिनकी मौत कोरोना वायरस की वजह से हुई. इस शहर की तनहाई में वो लाखों लोग शामिल हैं, जो अपने घरों की खिड़कियों से झांकते हुए इस दौर के ख़त्म हो जाने का इंतज़ार कर रहे हैं.
समाप्त
इस त्रासदी का सामना करने के लिए मैंने ख़्वाब देखने शुरू किए हैं. मैंने तय किया है कि मैं अपनी यादों को बिसरने नहीं दूंगी. अब मेरे पास उन यादों को संजोने के लिए अभी का ही वक़्त है. अभी मेरा मुस्तक़बिल बहुत दूर खड़ा है.
और हाल की हक़ीक़त ये है कि मरने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है. ग़रीबों के प्रति बेदिली का सिलसिला बदस्तूर जारी है. ऐसी मुसीबत के मारे दूर के गांवों से शहरों में आए मज़दूर अपने घरों को पैदल लौट रहे हैं. इस मरदुए वायरस की अंतहीन क्रूरता बड़ी तकलीफ़देह है.
ये किसी बुर्जुआ की ज़िंदगी का कोई अंतरंग क़िस्सा नहीं है. मुझे मालूम है कि ऐसे माहौल में खिड़की के पास बैठ कर अपनी ज़िंदगी की कहानी लिखना कोई अच्छा शग़ल नहीं है. जब आप बेफ़िक्र हों कि आपके रेफ्रिजरेटर में सामान ठसाठस भरा है. क्योंकि खिड़की के उस पार बाहर जो दुनिया है, वहां दर्द बेशुमार है. ग़ुरबत है. अभाव है.
ये सिर्फ़ एक वायरस से फैली महामारी भर नहीं है. दरअसल ये तन्हाई की भी एक संक्रामक वबा है. मैं तो अकेली ही रहती हूं. मैंने बरसों पहले ही ये फ़ैसला किया था कि अपनी ज़िंदगी अकेले ही गुज़ारूंगी. मैं अपना ये ख़याल किसी और से साझा नहीं करना चाहती थी. लेकिन, सच तो ये है कि अक्सर रातों को मैं फूट-फूटकर रोती हूं.
मैं अपना तजुर्बा काग़ज़ पर बस इसलिए उकेर रही हूं कि शायद इससे मुझे कुछ क़रार मिले. पर, लिख कर भी मुझे कोई तसल्ली नहीं मिलती.
रातों को नींद नहीं, अजीबो-ग़रीब सपने
मैं न्यूयॉर्क की एक नर्स जेनिफ़र कोल की फ़ेसबुक पोस्ट पढ़ती हूं. जेनिफ़र ने कोरोना वायरस की एक मरीज़ के साथ तीन रातें बिताई थीं. बाद में उस शख़्स की मौत हो गई.
तब जेनिफ़र ने अपने उस क्यूट से बुज़ुर्ग मरीज़ का स्वेटर तह किया. फिर उसका स्वेटर, उसके जूते और दूसरे सामान को एक बैग में रखा. और फिर वो उस बैग को उस कमरे में रख आई थी, जहां वायरस से मरने वालों का सामान जमा किया जाता है. जहां बाद में गुज़र जाने वालों के परिजन आकर उस सामान पर दावा करते हैं.
जेनिफ़र ने सोमवार को अपनी फ़ेसबुक पोस्ट में लिखा कि, 'ये शहर ज़र्रा-ज़र्रा बिखर रहा है और साथ ही साथ ये मेरा दिल भी चुरा रहा H |