Hindi, asked by ffxgjklgb, 11 months ago

(3) बड़े-बुजुर्ग ही बच्चों के आदर्श' विषय पर अपने विचार लिखिए।​

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Answered by reetamishra12459
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Explanation:

एक परिवार में एक बुजुर्ग अपने बेटे, बहू और चार साल के पोते के साथ रहता था। पूरा परिवार रात को एक साथ बैठकर भोजन करता था। बुजुर्ग पिता के हाथ कांपते थे और आंखें भी कमजोर होने के कारण उसे खाने में बहुत मुश्किल होती थी। खाते समय हाथ से चम्मच गिर जाता। कभी दूध का गिलास लुढ़क जाता। ऐसा लगभग हर रोज होता था। बेटा और बहू इस बात से काफी चिढ़ गए थे। एक दिन बेटे ने पिताजी के लिए एक छोटा टेबल घर के एक कोने में लगा दिया। परिवार के बाकी लोग डाइनिंग टेबल पर एकसाथ खाने का आनंद लेते थे। पिता के लिए खाना अब लकड़ी के कटोरे में परोसा जाता था। कई बार खाना खाते समय जब परिवार वाले उनकी तरफ देखते तो पिता जी की आंखो में आंसू छलक जाते थे। कभी उनके हाथ से चम्मच गिर जाता था तो उन्हें काफी झिड़कियां सुननी पड़ती थीं। चार वर्ष का पोता चुपचाप यह सब देखता रहता था। एक शाम बेटे ने देखा कि उसका बेटा लकड़ी के कुछ टुकड़ों से फर्श पर खेल रहा था। उसने प्यार से पूछा- 'क्या बना रहे हो?' बच्चे ने भी प्यार से जवाब दिया, 'मैं आपके और ममी के खाने के लिए एक प्याला बना रहा हूं। जब मैं बड़ा हो जाऊंगा, तो उसमें खाना दूंगा।' उसके के शब्दों ने जोरदार असर छोड़ा। पति-पत्नी की आंखों से आंसू बह चले। उसी शाम बेटा अपने पिता को आदर सम्मान के साथ खाने की टेबल पर ले गया। पिता अब परिवार के साथ ही भोजन करने लगे। अब किसी को उनसे कोई शिकायत न थी। चार साल के बच्चे ने वह कर दिखाया जो शायद किसी प्रवचनकर्ता से भी न होता। पहले ऐसा नहीं था। अब जीवन मूल्य बदल रहे हैं, आज बच्चों के पास समय का अभाव है। सभी की इच्छा होती है कि हम सब से आदर पाएं। अपने आप से पहले पूछा जाए कि क्या हम दूसरों का आदर करते हैं? जब हम बड़े हो जाते हैं तो अपने फैसलों को ही ठीक समझने लगते हैं। हमारे बुजुर्ग कुछ सुझाव देते हैं, हम सहमत नहीं होते। उलटे नाराज भी हो जाते हैं कि वे पुराने विचारों के हैं। हम यह भूल जाते हैं कि हमारे बच्चे हमें जैसा करता देखेंगे, वे भी वैसा ही करेंगे। एक दिन वे भी हमारे साथ वही व्यवहार करेंगे। गीता में कहा है, 'देहिनोस्मिन्यथा देहे, कौमारं, यौवनं, जरा' अर्थात इस शरीर की कौमार्य, यौवन और बुढ़ापा की तीनों अवस्थाएं स्वाभाविक और अनिवार्य हैं। जिसने भी शरीर धारण किया है, उसका बचपन, यौवन और बुढ़ापा तय है। इसलिए बुढ़ापे को भार मानने का अर्थ है - शरीर धारण को ही भार मानना। बुजुर्ग अनुपयोगी नहीं बल्कि समझ और अनुभव के बल पर परिवार के लिए हितकर साबित होते हैं। उनकी उपेक्षा का अर्थ है, जीवन के लिए उपयोगी ज्ञान व अनुभवों की अवहेलना करना। आज जो लोग अपने बुजुर्ग माता-पिता की उपेक्षा कर रहे हैं, वे भी आखिरकार भविष्य में बूढ़े जरूर होंगे। तब उन सब के साथ भी वही व्यवहार होगा, आज जिसकी वे नींव डाल रहे हैं। बुजुर्गों की भावनाओं का सम्मान करना और उनकी उचित सेवा करना एक अच्छे परिवार का गुण है। इस गुण को बनाए रखना जरूरी है। बहुत से सभ्य समाजों और देशों के लोग तो बड़ी सूझबूझ व आदर के साथ अपनों के बुजुर्ग होने का स्वागत करते हैं। जापान में तो बच्चों को बाल्यकाल से ही बड़ों का आदर-सम्मान करने की आदत डाल दी जाती है। अमरीका में 40 से 50 लाख बच्चे अपने दादा-दादी की छत्रछाया में रहते हैं। वे बच्चों को बचपन से वयस्क होने तक संरक्षण देते हैं। ऐसे बच्चे ही बड़े होकर अपने बुजुर्गों का आदर-सम्मान करते हैं और उनके जीवन मूल्यों को ग्रहण करते हैं। बड़ों का ऐसा संरक्षण ही पूरे समाज को लाभ पहुंचाता है। दूसरी तरफ बुजुर्गों का आदर भी बनाता है आदर्श समाज।

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