3. चिंता, चिता के समान है।
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chita to chita kaya kerw aba
चिंता और चिता एक समान है, इसमें मात्र एक बिंदु का अंतर आता है। चिंता मानव को मृत होने के बाद जलाती हैं किंतु चिंता मनुष्य को जीवित रहने तक जलाती रहती है। चिंता से बचने के लिए स्वध्याय बहुत अच्छा उपाय है। स्वध्याय परम तप है अरिहंतों के प्रवचन आत्मा को सिद्व बना देते है। ये मंगल उद्गार आचार्य श्री विभवसागर महाराज ने बुधवार को अभिव्यक्त किए।
शहर की जैन धर्मशाला में ससंघ विराजमान आचार्यश्री विभवसागर महाराज के सानिध्य में श्रावकजनों को प्रतिदिन ग्रीष्मकालीन वाचना का लाभ अर्जित हो रहा है। आचार्यश्री द्वारा बुधवार को कल्याण मंदिर स्त्रोत्र के 20 एवं 21 वें अध्याय का सारांश सरल शब्दों में समझाया गया। इस अवसर पर आचार्यश्री ने जिनेंद्र भगवान के वचनों को औषधि की तरह बताया। भगवान के वचन, जन्म, जरा, मृत्यु के लिए औषधि की तरह कार्य करते है। जिनवाणी औषधि का प्रयोग करने वाले को कभी कोई रोग नहीं हो सकते। जिनवाणी सर्वरोग नाशनी है, जिनवाणी रोग को जड़ मूल से नष्ट कर देती है। मोह रोग सबसे बड़ा रोग है मोहनीय कर्म के जाते ही सभी रोग चले जाते है। आचार्यश्री ने कहां कि शरीर को रोगों से बचाने के लिए रात में भोजन नहीं करना चाहिए। भोजन बनाने के लिए अग्नि चाहिए किंतु आज अग्नि कम हो गई है जबकि भोजन भारी हो गया है। खाने वाला बलवान नहीं पचाने वाला बलवान। पचने वाला भोजन स्वास्थ्यपद होता है। मजबूत बनने के लिए रोटी खाना जरूरी है। मजदूर रोटी खाकर ही इतनी मेहनत कर लेते है।
आदिनाथ भागवान ने सबसे पहले आहार की शिक्षा दी। यह आहारिक शरीर तो धर्म का साधन हैं। आहार विज्ञान का उपयोग विवेक के साथ करना चाहिए। स्वस्थ्य व्यक्ति ही धर्म साधन कर सकता है।
दिगंबर जैन धर्मशाला में प्रवचन सुनते श्रद्धालु।