3. ईश्वर की पूजा कब निरर्थक हो जाती है ?
Answers
Answer:
संसार में मूर्ति पूजा का इतिहास ज्ञात करने पर पता चलता है कि जैन-बौद्ध-काल से पूर्व इसका आरम्भ नहीं हुआ था। चीन के प्रसिद्ध इतिहास वेत्ता और यात्री फाहियान ने सन् 400 ई0 में भारत की यात्रा की थी। उसने देखा था कि पटना में प्रतिवर्ष दूसरे मास के आठवें दिन मूर्तियों की एक सवारी निकाली जाती थी। उसका रूप आजकल की, जगन्नाथ यात्रा में निकाली जाने वाली मूर्तियों की रथ यात्रा के समान था। फाहियान की यात्रा के लगभग 240 वर्ष बाद सन् 640ई0 में दूसरा चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आया। उसके आगमन के समय तक हिन्दुओं में भी मूर्ति पूजा का प्रचलन हो चुका था। कुछ विद्वानों का मत है कि सबसे पहले मूर्ति पूजा जैनियों ने प्रारम्भ की और बौद्धों ने जैनियों से मूर्ति पूजा करना सीखा। हिन्दुओं ने जैनियों और बौद्धों से मूर्ति पूजा करना सीखा था। महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनुसार पाषाणदि मूर्ति पूजा की जैनियों से प्रचलित हुईं। मूर्ति पूजा के प्रारम्भ के समय के सम्बन्ध में विद्वानों के मतों में थोड़ा़-बहुत अन्तर हो सकता है परन्तु यह निर्विवादित तथ्य है कि वैदिक काल से लेकर महाभारत काल पर्यन्त इस देश में किसी प्रकार की मूर्ति पूजा नहीं की जाती थी। विचारणीय विषय यह है कि मूर्ति पूजा का आरम्भ क्यों हुआ?
महर्षि सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें सम्मुलास में लिखते हैं- ‘‘जब बडे-बड़े विद्वान्, राजा, महाराजा, ऋषि, महर्षि लोग महाभारात युद्ध में बहुत से मारे गए और बहुत से मर गए तब विद्या और वेदोक्त धर्म का प्रचार नष्ट हो चला। ……केवल जीविकार्थ पाठमात्र ब्राह्मण लोग पढ़ते रहे सो पाठमात्र भी क्षत्रिय आदि को न पढ़ाया, क्योंकि जब अविद्वान् हुए गुरु बन गए तब छल, कपट, अधर्म भी उनमें बढ़ता चला। ब्राह्मणों ने विचारा कि अपनी जीविका का प्रबन्ध बाँधना चाहिए। सम्मति करके यही निश्चय कर क्षत्रिय आदि को उपदेश करने लगे कि हम ही तुम्हारे पूज्यदेव हैं। विना हमारी सेवा किए तुमको स्वर्ग या मुक्ति नहीं मिलेगी। किन्तु जो तुम हमारी सेवा न करोगे ता घोर नरक में पड़ोगे। जो-जो पूर्ण विद्या वाले धार्मिकों का नाम ब्राह्मण और पूजनीय वेद और ऋषि-मुनियों के शास्त्र में लिखा था उनको अपने मूर्ख, विषयी, कपटी, लम्पट, अधर्मियों पर घटा बैठे। भला, वे आप्त विद्वानों के लक्षण इन मूर्खो में कब घट सकते हैं? परन्तु जब क्षत्रियादि संस्कृत विद्या से अत्यन्त रहित हुए तब उनके सामने जो-जो गप्प मारी सो-सो विचारों ने मान ली। तब इन नाम मात्र के ब्राह्मणों की बन पड़ी। सबको अपने वचन-जाल में बाँधकर कहने लगे कि- ब्रह्मवाक्यं जनार्दनः । (पाण्डव गीता