Hindi, asked by ramprajapati63906339, 9 months ago

3.
निम्नलिखित गद्यांशों में से किसी एक गद्यांश के नीचे दिए
गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :
2+2+2=6
(क) हमारी सारी संस्कृति का मूलाधार इसी अहिंसा तत्त्व पर
स्थापित रहा है । जहाँ-जहाँ हमारे नैतिक सिद्धान्तों का
वर्णन आया है, अहिंसा को ही उसमें मुख्य स्थान दिया
गया है । अहिंसा का दूसरा नाम या रूप त्याग है और
हिंसा का दूसरा रूप या नाम स्वार्थ है, जो प्राय: भोग
के रूप में हमारे सामने आता है । पर हमारी सभ्यता ने
तो भोग भी त्याग ही से निकाला है और भोग भी त्याग
में ही पाया है । श्रुति कहती है 'तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः' ।
इसी के द्वारा हम व्यक्ति-व्यक्ति के बीच का विरोध,
व्यक्ति और समाज के बीच का विरोध, समाज और
समाज के बीच का विरोध, देश और देश के बीच का
विरोध मिटाना चाहते हैं । हमारी सारी नैतिक चेतना
इसी तत्त्व से ओत-प्रोत है।
(i) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए ।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) पारस्परिक विरोध को कैसे मिटाया जा सकता
है ?
801 (AF)
P.T.O.​

Answers

Answered by satishkashyap62195
1

sabke bich ka virodh mitakar unke bich ekta lana

Answered by sindhu789
4

गद्यांश में नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर निम्नलिखित हैं -

Explanation:

(i)  सन्दर्भ: प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिन्दी के गद्य खण्ड में संकलित ' भारतीय संस्कृति ' नामक निबन्ध से लिया गया है, जिसके लेखक डॉ० राजेन्द्र प्रसाद हैं।  

(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या: डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि हमारी सारी संस्कृति इसी अहिंसा तत्व पर टिकी हुयी है। इस संघर्ष को टालने का एकमात्र उपाय अहिंसा या त्याग भावना का अनुसरण करना है। जब भी हम मानवीय मूल्यों की बात करते हैं, तब अहिंसा को मुख्य स्थान देते हैं।

भारतीय संस्कृति में नैतिक मान्यताओं का विशेष महत्त्व है, जो कि अहिंसा के तत्व पर ही आधारित हैं। एक तरफ अहिंसा का दूसरा नाम ही त्याग है, वहीं हिंसा का दूसरा नाम स्वार्थ है। हिंसा का जन्म तभी होता है जब मनुष्य स्वार्थ के कारण पदार्थों का उपभोग अकेले ही करने लगता है।

हमारी भारतीय संस्कृति में त्याग और भोग का समन्वय है, क्यूंकि जब तक हम किसी वस्तु का त्याग नहीं करते तब तक दूसरा कोई उसका उपभोग नहीं कर सकता। अतः त्याग से ही भोग की प्राप्ति होती है।  

लेखक का कहना है कि वेद और उपनिषदों में भी त्यागपूर्वक भोग को महत्त्व दिया गया है। त्याग की भावना से ही हमारा आपसी संघर्ष समाप्त हो सकता है। इसी प्रकार हम इस त्याग की भावना से व्यक्ति का व्यक्ति से, व्यक्ति का समाज से, समाज का समाज से और देश का देश से संघर्ष समाप्त कर सकते हैं। सभी संघर्ष स्वार्थ या भोग के लिए होते हैं। अतः हमें अपनी नैतिक चेतना को इसी तत्व त्याग से ओत - प्रोत करना होगा तभी हम सभी संघर्षों को समाप्त कर सकते हैं।  

(iii) पारस्परिक विरोधों को त्याग की भावना द्वारा समाप्त किया जा सकता है।

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