3. तद्दोषों शब्दार्थो सगुणावनलंकृति पुनरू क्वापिए परिभाषा है
(A) भातरमुनि
(B) पंडित जगन्नाथ का
(C) भामह
(D) दंडी
Answers
तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि
अर्थात दोष रहित, गुणसहित और कभी-कभार अनलंकृत शब्द और अर्थमयी रचना काव्य है। इस परिभाषा में हम पाते हैं कि इसमें दोषों के अभाव और गुणों के भाव को प्रधानता दी गई है। इसमें अलंकारों को बहुत आवश्यक नहीं माना गया है।
आचार्य विश्वनाथ ने मम्मट के इस मत की आलोचना की है। उन्होंने कहा कि श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कविताओं में कभी-कभार दोष तो निकल ही आता है। और जब दोष निकल आता है तो उसे हम कविता की श्रेणी से थोड़े ही हटा देते हैं।
इस प्रकार “दोष रहित”, काव्य का एक नकारात्मक लक्षण है।
इसके अलावा अलंकार कविता के लिए ज़रूरी नहीं है यह तो मम्मट ने कहा पर न ही रस का संकेत दिया और न ही ध्वनि या वक्रोक्ति का। उनकी परिभाषा में केवल गुण का संकेत है।
इसके बावज़ूद भी मम्मट का काव्य लक्षण काफी प्रसिद्ध रहा। इसका प्रमुख कारण था इसका काफी सरल होना। हालाकि इसमें मौलिकता कम और समझौता अधिक है। वे अलंकारवादियों को भी ख़ुश रखना चाहते थे साथ ही गुणवादियों को भी। साथ ही साथ वे रस और ध्वनिवादियों का भी विरोध नहीं करते।