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हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।
अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।
ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए।
राज धरम तौ यहै 'सूर', जो प्रजा न जाहिं सताए।।सताए।।hindi m vyakhya likhiye.......faltu ke answer na de na aata ho to chup chap dekhe
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Answer:
गोपियाँ ऊधौ से कहती हैं - ऊधौ ! लगता है , श्रीकृष्ण राजनीति पढ़ आए हैं । अरे भँवरे ऊधौ ! मैं तो तुम्हारी बात कहते ( सुनते ) ही समझ गई थी कि दाल में कुछ काला है । हम सब समाचार जान गई हैं । हम कृष्ण की छल - भरी राजनीति समझ गई हैं । अरे भँवरे ! एक तो तुम पहले से ही चतुर - चालाक थे । अब तुम अपने गुरु कृष्ण से राजनीति के ग्रंथ भी पढ़ आए हो । अतः तुम्हारी हर बात में छल - कपट भर गया है । वाह ! हम कृष्ण की बुद्धि का बड़प्पन भी मान गए । उन्होंने हमारे लिए योग का संदेश भेजकर कितनी समझदारी की है । ( क्या उन्हें लगता है कि हम योग - संदेश सुनकर कृष्ण को भूल जाएँगी । यह सोचना मूर्खता है । ) ऊधौ ! पहले बड़े लोगों की यह रीति होती थी कि वे औरों की भलाई के लिए दौड़े - दौड़े फिरते थे । परंतु अब न हमें तुम पर विश्वास है , न कृष्ण पर । चलो , कम - से - कम अब हमें हमारा मन तो वापस मिल जाएगा , जिसे श्रीकृष्ण यहाँ से जाते समय चुरा ले गए थे । परंतु हमें यह समझ नहीं आता कि जो कृष्ण औरों को अन्याय से बचाते रहे हैं , वे स्वयं हम पर अन्याय क्यों कर रहे हैं ? वे हमें अपना प्रेम न देकर योग - संदेश क्यों भेज रहे हैं । सूर के शब्दों में गोपियाँ कहती हैं - ऊधौ ! राजधर्म तो यही कहता है कि प्रजा को सताया न जाए । अत : कृष्ण को चाहिए कि वे अपना योग - संदेश वापस लें और अपने दर्शन दें ।