4) कोई भी कहानी या उपन्यास को पढ़कर उसकी समीक्षा कीजिए।
ध्वनि please tell me please
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(उपन्यास) मुंशी प्रेमचंद की उपन्यास की समीक्षा
गोदान प्रेमचंद का हिंदी उपन्यास है जिसमें उनकी कला अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँची है। गोदान में भारतीय किसान का संपूर्ण जीवन - उसकी आकांक्षा और निराशा, उसकी धर्मभीरुता और भारतपरायणता के साथ स्वार्थपरता ओर बैठकबाजी, उसकी बेबसी और निरीहता- का जीता जागता चित्र उपस्थित किया गया है। उसकी गर्दन जिस पैर के नीचे दबी है उसे सहलाता, क्लेश और वेदना को झुठलाता, 'मरजाद' की झूठी भावना पर गर्व करता, ऋणग्रस्तता के अभिशाप में पिसता, तिल तिल शूलों भरे पथ पर आगे बढ़ता, भारतीय समाज का मेरुदंड यह किसान कितना शिथिल और जर्जर हो चुका है, यह गोदान में प्रत्यक्ष देखने को मिलता है। नगरों के कोलाहलमय चकाचौंध ने गाँवों की विभूति को कैसे ढँक लिया है, जमींदार, मिल मालिक, पत्रसंपादक, अध्यापक, पेशेवर वकील और डाक्टर, राजनीतिक नेता और राजकर्मचारी जोंक बने कैसे गाँव के इस निरीह किसान का शोषण कर रहे हैं और कैसे गाँव के ही महाजन और पुरोहित उनकी सहायता कर रहे हैं, गोदान में ये सभी तत्व नखदर्पण के समान प्रत्यक्ष हो गए हैं। गोदान वास्तव में २०वीं शताब्दी की तीसरी और चौथी दशाब्दियों के भारत का ऐसा सजीव चित्र है, जैसा हमें अन्यत्र मिलना दुर्लभ है।
वह कहते हैं कि समाज में जिन्दा रहने में जितनी कठिनाइयों का सामना लोग करेंगे उतना ही वहाँ गुनाह होगा। अगर समाज में लोग खुशहाल होंगे तो समाज में अच्छाई ज्यादा होगी और समाज में गुनाह नहीं के बराबर होगा। प्रेमचन्द ने शोषितवर्ग के लोगों को उठाने का हर संभव प्रयास किया। उन्होंने आवाज लगाई "ए लोगों जब तुम्हें संसार में रहना है तो जिन्दों की तरह रहो, मुर्दों की तरह जिन्दा रहने से क्या फायदा।"
प्रेमचन्द ने अपनी कहानियों में शोषक-समाज के विभिन्न वर्गों की करतूतों व हथकण्डों का पर्दाफाश किया है।
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पुस्तक समीक्षा
आधुनिक काल में भले ही इंटरनेट का जोर हो, ई-बुक्स का प्रचार-प्रसार हो रहा है। इन सबके बावजूद, दुनियाभर में पुस्तकों की बिक्री बढ़ रही है। पुस्तकें ज्ञान का भंडार हैं। मुद्रित पुस्तक को पढ़ने के लिए समय की ज़रूरत होती है। पुस्तक पठन के लिए उम्र व स्थान का बंधन नहीं होता। किसी पुस्तक की समीक्षा हेतु निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना अनिवार्य है –
पुस्तक का पूर्व अध्ययन करना चाहिए।
पुस्तक के मुख्य-मुख्य बिंदुओं को नोट करना चाहिए।
पुस्तक के शिल्प पक्ष का भी ज्ञान होना चाहिए।
पुस्तक की अच्छाइयों के वर्णन के साथ-साथ कमियों को भी उजागर करना चाहिए।
समीक्षा करते समय पूर्वाग्रह से दूर रहना चाहिए।
उदाहरण (हल सहित)
जिंदगी की साँझ से संवरती कविताएँ
-डॉ० रूप देवगुण
कविता-संग्रह : साँझ का स्वर
कवयित्री : डॉ० सुधा जैन
प्रकाशन : अक्षरधाम प्रकाशन, कैथल
मूल्य: 150/- वर्ष : 2012
डॉ० सुधा जैन हरियाणा की प्रतिष्ठित कवयित्री, कहानी लेखिका व लघुकथाकार हैं। ‘साँझ का स्वर’ इनका छठा काव्य-संग्रह है। इस संग्रह में इनकी कुछ कविताएँ जीवन की साँझ को मुखरित करती हैं। ‘साँझ घिर आई’ में वृद्धावस्था में व्यतीत हो रहे जीवन का लेखा-जोख है। दिनभर का लेखा-जोखा/क्या खोया क्या पाया/ ‘फिर मिलेंगे’ में बचपन, जवानी, बुढ़ापा, मृत्यु व पुनर्जन्म की बात की गई है। ‘हँसते-हँसते’ में फिर बुढ़ापे की जिंदगी को दोहराया गया है-बिस्तर में सिमट गई जिंदगी/किताबों में खो गई जिंदगी/ ‘भीतर की आंखें’ में बुजुर्गों की दयनीय दशा का वर्णन है। वे बाहर से अशक्त दिखाई देते हैं और भीतर की आंखों से ही संसार का अवलोकन कर सकते हैं-भीतर की खुल गई आँखें/मैं भी देख रही अब/अपने चारों ओर बिखरा संसार/ढलती उम्र में विस्मृतियों का सहारा लेना पड़ता है-पुरानी फाइलों में दबे पत्र पढ़े। कितनी घटनाएँ, कितने लोग, कितने नाम, विस्मृति के अंधेरे में खोये टिमटिमा उठे (विस्मृति का कोहरा)।
डॉ० सुधा जैन ने इस संग्रह की कई कविताओं में नारी के स्वर को तरजीह दी है। ‘घर-बाहर के बीच पिसती औरत’ कविता में नौकरी करने वाली औरतों की तकलीफदेह ज़िन्दगी का लेखा-जोखा है-सुबह पाँच बजे उठती/घर संवारती/चाय, नाश्ता, खाना बनाती/बच्चे स्कूल भेजतीं/पति को ऑफिस भेज/भागती दौड़ती/अपने दफ़्तर पहुँचती/बॉस की डांट सुनतीं/रोज ही देर हो जाती। औरत आज भी सुरक्षित नहीं है-आज भी सुरक्षित नहीं/औरत/इतनी शिक्षा/इतने ऊँचे-ऊँचे ओहदों पर/पहुँचने के बाद (औरत)। माँ की आँखें दफ़्तर से लौटने वाली जवान बेटी को खोज रही हैं- खोज रही आँखें/भीड़ में अपनी बेटी/लौटी नहीं/दफ्तर से।
घूमते सब ओर/सड़कों में, पार्कों में बसों में/ट्रेनों में (नहीं लौटेंगे कदम पीछे) वस्तुतः औरत संपन्न पिंजरे की मैना जैसी है-सबका मनोरंजन करती/मैं पिंजरे की मैना/उड़ना भूल गई/(पिंजरे की मैना) धन संपन्न नारियाँ अधिकतर रोगग्रस्त हैं, इसका वर्णन कवयित्री ने ‘धन संपन्न नारियाँ कविता में किया है। वास्तव में इनके पास सब कुछ है किंतु सुख नाम की कोई चीज़ नहीं है। गांव में रहने वाली औरत का और भी बुरा हाल है। ‘गांव की छोटी’ कविता में डॉ० सुधा जैन ने लिखा है-चाहा उसने यदि/अपने मन की मीत/ तो लांघ गई सीमा/गंडासे से काट दी जाति। ‘इतनी उपेक्षा क्यों’ कविता में भ्रूण समस्या को लिया गया है।
डॉ० सुधा जैन ने आज के मशीनी युग का वर्णन इस प्रकार किया है-मशीनी युग में। जीते-जीते/मशीनवत हो गए हम/(मशीनों का युग) विदेशी माल की भर्त्सना करते हुए कवयित्री ने लिखा है-बाजार भर गये/विदेशी माल से/ढूँढ़ते लोगी/चीनी जापानी…. बनी चीजें/(कहां खो गया अपना देश) डॉ० सुधा जैन ने ‘जीने की राह’ कविता में जीवन की एकरसता को तोड़ने के साधन बताए हैं- मेले पिकनिक/सेर सपाटे/यात्राएँ तीज/त्योहार/जन्मदिन/शादियों के आयोजन/भिन्न-भिन्न समारोह/तोड़ देते एक रसता।
‘त्राहि-त्राहि’ कविता में महँगाई की समस्या को लिया गया है। किसान की दुर्दशा का भी कवयित्री ने वर्णन किया है-कहीं बाढ़/बह रहे मवेशी, मनुष्य/गाँव के गाँव/कहीं रो रहा किसान (बाढ़) प्रकृति से हम दूर होते जा रहे हैं, इसका वर्णन ‘प्रकृति से टूट रहा नाता’ कविता में इस प्रकार किया है-रात को सोते थे/खुली छतर पर/चाँदनी में नहाते…. प्रभात की मंद बयार/कितना मोहक होता था। प्रकृति का वह पहर। ‘चदरिया’ में जीवन-मृत्यु की दार्शनिक बाते हैं फिर भी क्यों/जीने की चाह/न जन्म अपना/न मृत्यु अपनी।
डॉ० सुधा जैन की इन कविताओं में सरल भाषा है, तुलनात्मक व संस्मरणात्मक शैलियाँ हैं। इन्होंने नारी जाति की समस्याओं को विशेष रूप से अपनी कविताओं में लिया है। इनकी कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता जीवन की सांध्य को लेकर लिखी रचनाएँ हैं। डॉ० सुधा जैन को अच्छी व स्तरीय कविताओं के लिए साधुवाद।