4. मुझे मानव-जाति की दुर्दम-निर्मम धारा के हजारों वर्ष का रूप साफ
दिखाई दे रहा है। मनुष्य की जीवनी-शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता
और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है। न जाने कितने
धर्माचारों, विश्वासों, उत्सवों और व्रतों को धोती-बहाती यह
जीवन-धारा आगे बढ़ी है। संघर्षों से मनुष्य ने नयी शक्ति पाई है। हमारे
सामने समाज का आज जो रूप है, वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग
का रूप है। देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बाद की बात है।
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