4 Sargun Bhakti Aur 4 Nirgun Bhakti likiye or unke baare m bhi bataiye
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आज के दौर में बहुत से लोग परमात्मा को सगुण रूप में पूजते है और बहुत से निर्गुण रूप में । सगुण रूप में पूजने का सीधा सीधा मतलब होता है कि हम परमात्मा को एक आकर में देखते है । आप अपनी सोच के हिसाब से परमात्मा को देखते है । हम कृष्ण को उस रूप में देखते है , जिस रूप में हमें बताया गया, दिखाया गया, चित्रित किया गया हमारे द्वारा और मूर्तिवत रूप दे दिया गया उन्हें, जिन्हें हम पूजते है। ये है सगुण पूजा -एक रूप की, आकार की, ये है सगुण साकार ब्रह्म । जब भी हम ब्रह्म को एक शरीर में मूर्त रूप में देखते है तो ये सोच ये नजर हमारी है तमोगुणी, क्योंकि सोच का धरातल शरीर है । और यदि हम प्रभु को देखते है मन के धरातल पर तो ये रजोगुणी है और यदि हम देखते है आत्मा के धरातल पर तो ये सतोगुणी है । ये अलग अलग ढंग से देखने की नजर है, आँख है प्रभु को देखने की ।
अब इसको विस्तार से समझते है । यदि हम परमात्मा को एक अस्तित्व के तौर पर सर्वत्र विद्यमान सत्ता के रूप में देखते है तभी हम अपने अंदर सोच लाते है निराकार की । एक ऐसी परम सत्ता जिसका कोई ओर-छोर नहीं, एक ऐसी सत्ता जो सर्वत्र है । यदि हमें एक खिडकी से पूरे आकाश को देखना चाहे तो क्या देख पाएंगे ? नहीं, क्योंकि वो आकार नहीं है । आपने अधूरा देखा । आप उसे पूरा देख ही नहीं सकते । आप उसमें है, आप कैसे देखेंगे अस्तित्व को । आप हाथ जितना खोलोगे आकाश उतना ज्यादा । मुट्ठी भींच लो, आकाश नहीं । हम अस्तित्व में जीते है कैसे कहेंगे उसको ।
इसमें एक चीज देखने जैसी है परमात्मा हर वस्तु में है भी और नहीं भी है । गहरा दर्शन है जैसे वह शरीर में है भी और नहीं भी, मन है भी और नहीं भी । जैसे जल की एक लहर और बूंद अलग अलग है और नहीं भी । जो लोग परमात्मा को हमेशा एक सगुण यानि साकार रूप में देखते है और उससे ज्यादा हाथ नहीं बढ़ाते है अपना, उस परम की तरफ तो यात्रा उनकी भी ऊपर की होकर रह जाती है। जीवन में सिर्फ शरीर की, यानि तमोगुणी जो थोड़ा सा और करीब आया, अंदर उतरा पर मन में फंस के रह गया तो वह है रजोगुणी और यदि उससे आगे उतरा प्रभु के ध्यान में और प्रभु ने जनवाया उसे अपने आपको, तब वह आया आत्मा की सोच पर, धरातल पर । आप देखते होंगे आज के समाज में ५५ साल के वृद्ध भी अभी तक मूर्ति पूजा में फंसे है । एक चौखटे से देखते है परमात्मा को, अस्तित्व मे नहीं । आज भी मंदिर जा रहे है । जीवन में ध्यान नहीं, है समझ में गहराई नहीं , ऊपर ऊपर तैर रहे है, अंदर गये ही नहीं, मोती कैसे मिले और हाँ उनकी समझ को इतना भ्रमित कर दिया गया है कि कृष्ण की कथा में भी वह कहानी में उलझे है । छू तक नहीं पाते वह उस अनुभूति को जो समाधि पायी उन्होंने । ये बिलकुल वैसा ही है जैसे एक बुजुर्ग पहली कक्षा की पढाई करे। उम्र बीती है, अनुभव नहीं बढा । गुना नहीं किया जीवन को सिर्फ काटा है । यात्रा नही की, चले है सिर्फ जैसे मन ने चलाया वैसे और पुजारी ने समझाया वैसे।
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